ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
:३७:
राजा देवीसिंह ने अलीमर्दान के पालरवाले दस्ते को हटाकर ही चैन नहीं लिया, बल्कि इस बात का प्रबंध करने की चेष्टा की कि वह लौटकर फिर उपद्रव न करे। राजधानी सुरक्षित थी। सिंहगढ़-विजय का समाचार पाकर उसने दलीपनगर की सीमा को बचाव के लिए दृढ़ करना आरंभ कर दिया। उधर लोचनसिंह को उचित धन्यवाद देते हुए आदेश भेजा।
लोचनसिंह ने इसे पाकर रामदयाल को बुलाया। कैद में था, पहरेदारों के साथ आया। लोचनसिंह ने कहा, 'छोटी रानी से मिलना चाहता हूँ। थोड़ी देर में आता हूँ। कागज, कलम और दवात तैयार रखें।'
रामदयाल लौटा दिया गया। थोड़ी देर बाद लोचनसिंह गया। परदे में बैठी हुई रानी
से बातचीत होने लगी।
रानी ने कहा, 'जो हुकुम तुमने अपने डेरे पर मेरे नौकर को बुलाकर दिया, उसे
किसी से यहीं कहलवा भेजते, क्यों मेरा हल्कापन करते हो?'
'मैं नौकरों के डेरों पर नहीं जाता। और क्या ठीक था, जो कुछ किसी के द्वारा कहलवा भेजता, उसे माना जाता या नहीं?'
'यह नौकरों का डेरा है, लोचनसिंह?'
'यह न सही, वह तो है। अब मैं जिस काम से आया हूँ, वह सुन लीजिए।'
'क्या? सिर काटने के लिए?'
'यह काम मेरा नहीं और न मैं इसके लिए आया ही हूँ। कलम, दवात, कागज मौजूद है।'
'नहीं है। काहे के लिए चाहिए?'
लोचनसिंह ने बहुत शिष्टाचार के साथ बतलाने की कोशिश की, परंतु फिर भी उसके स्वर में काफी कठोरता थी। बोला, 'आपको कागज पर यह लिखना होगा कि दलीपनगर राज्य से आपको कोई वास्ता नहीं।'
"किसकी आज्ञा से?' रानी ने काँपते हुए स्वर में पूछा।
'राजा की आज्ञा से।' उत्तर मिला।
'राजा की आज्ञा से!' बड़ी घृणा के साथ रानी बोली, 'उस भिखमंगे की आज्ञा से!'
जाओ उससे कह दो कि मैं रानी हूँ, राज्य की स्वामिनी हूँ। वह लुटेरा और
जनार्दन विश्वासघाती हैं, चोर हैं, मैं तुम सबको दंड की व्यवस्था करूंगी।'
'तुम अब रानी नहीं हो।' लोचनसिंह ने उत्तेजित होकर कहा, 'स्त्री हो, नहीं तो-' लोचनसिंह वाक्य पूरा नहीं कर पाया। अपने आवेश में डूबकर रह गया।
रानी बोली, 'लोचनसिंह, लोचनसिंह, कोई स्त्री तुम्हारी भी माँ रही होगी परंतु तुम किसी के न होकर रहे। मेरे स्वामी के लिए तुम अपना सिर दे डालने की डींग मारा करते थे। झूठे, घमंडी, इस छिछोरे का अंजलि-भर अन्न खाते ही तू अपने पुराने स्वामी को भूल गया! हट जा मेरे सामने से।'
लोचनसिंह ने इस तरह के कुवचन अपने जीवन में कभी न सुने थे। तिलमिला गया। बोला, 'सच मानो रानी, अपने पूर्व राजा की याद ही मेरे खड्ग को इस समय रोके हुए है, नहीं तो ऐसा अपमान करके कोई भी स्त्री-पुरुष मेरे हाथ से नहीं बच सकता था। तुम कैद में हो, इसलिए भी अवध्य हो और इसीलिए तुम्हारी जबान इतनी तेज चल रही है।
राजा को सब हाल लिखे देता हूँ। वह यदि तुम्हें प्राणदंड भी देंगे, तो मैं कोई निषेध नहीं करूंगा।'
लोचनसिंह बहुत खिन्न, बहुत क्लांत वहाँ से चला गया, परंतु रानी कहती रहीं, 'देखूँगी, देखूँगी, कैसे देवीसिंह राजा बना रह सकता है? सबको सूली न दी या कतर न डाला, तो मेरा नाम नहीं। इन नमकहरामों का मांस यदि कुत्तों से न नुचवा पाई, तो जान लूँगी कि संसार से धर्म बिलकुल उठ गया।'
उस दिन से लोचनसिंह ने रानी का पहरा बहुत कड़ा कर दिया।
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