ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
लोचनसिंह की विजयिनी सेना किले की ओर बढ़ती गई। खाई के सिरों पर अलीमर्दान की जो टुकड़ियाँ किले की ओर भागीं, उनके लिए द्वार न खुल पाया। उत्तर की ओर से लोचनसिंह के दसरे दस्ते ने जोर का धावा किया। कुंजरसिंह के दल ने यथाशक्ति उत्तर की ओर से आनेवाली बाढ़ का प्रतिरोध किया, परंतु कुछ न बन पड़ा। वह दल उस ओर से किले के भीतर घुस आया। कुंजरसिंह ने अपने साथियों सहित लड़कर मर जाने की ठानी। । उसी समय रामदयाल कुंजरसिंह के पास आया। बोला, 'राजा, महारानी के महलों पर चलकर लड़ो। यह स्थान घिर गया है। कालेखाँ फाटक पर लड़ रहे हैं। उस तरफ से दुश्मन की फौज दाबे चली आ रही है। यदि फाटक खोलते हैं, तो भीतर-बाहर सब ओर वैरी का लोहा बज जाएगा।'
कुंजरसिंह ने कहा, 'महारानी जितने सिर कटवा सकती हैं, उतने बचा नहीं सकतीं। इस जगह लड़ना व्यर्थ है, मैं तो बाहर जाकर लडूंगा।'
'स्त्री की पुकार? और वह आपकी माँ भी होती हैं।'
'उन्होंने हम सबको इस दुर्दशा में पहुँचाया।'
'फिर भी माँ हैं। राजा नायकसिंह की रानी हैं। याद कर लीजिए। माँ के ऋण से उऋण होना है। अन्य सब बातों को भूल जाइए।'
'जो कुछ कहना है, वह तुमसे कह दिया। जाकर कह दो। वह स्त्री नहीं हैं। स्त्रीवेश में प्रचंड पुरुष हैं। यदि उन्हें अपनी रक्षा की चिंता हो, तो मेरे साथ चलें। जाओ।'
यह कहकर कुंजरसिंह अपने आदमियों को लेकर चलने को हुआ। इतने में कालेखाँ आ
गया। बोला, 'कुंजरसिंह, तुमने हमारा सत्यानाश किया। कहाँ जाते हो?'
'जहाँ इच्छा होगी, वहाँ?'
'यह नहीं हो सकता। मैं कोटपाल हूँ। मेरा हुकुम मानना होगा, न मानोगे, सजा
पाओगे।'
कुंजरसिंह नंगी तलवार हाथ में लिए था। बोला, 'दंड-विधान मेरे हाथ में है।
जाओ, अपना काम देखो। गढ़ और राज्य का मालिक मैं हूँ, और फिर बतलाऊँगा।'
कुंजरसिंह चला गया। कालेखाँ चिल्लाया, पकड़ो, पकड़ो।
रामदयाल ने भी वही पुकार लगाई। लोचनसिंह की सेना के जो सैनिक गढ़ के भीतर आ गए थे, वे कालेखाँ की ओर झपटे। वह तो लड़ता हुआ किले के दक्षिण की ओर निकल गया, परंतु रामदयाल पकड़ा गया। उसने घिघियाकर प्राणरक्षा की प्रार्थना की, मैं तो नौकर हूँ, सिपाही नहीं हूँ, मुझे मत मारो।
सिपाहियों ने उसे कैद कर लिया।
उधर से हल्ला करके लोचनसिंह की सेना ने गढ़ का सदर फाटक तोड़ डाला। कालेखाँ की सेना घमासान युद्ध करने लगी, परंतु , लोचनसिंह को पीछे न हटा की। कालेखाँ कुछ सिपाहियों को लेकर किले से बाहर निकल गया। उसकी शेष सेना का अधिकांश भाग मारा गया; जो नहीं लड़े, वे कैद कर लिए गए।
रामदयाल पहले ही कैद कर लिया गया था। लोचन सिंह ने रानी को भी कैद कर लिया।
मशालों की रोशनी में किले का प्रबंध करके लोचनसिंह ने किले के भीतर और बाहर सेना को नियुक्त किया। एक दल कालेखाँ का पीछा करने के लिए भी भेजा। अलीमर्दान भी स्थिति को समझकर वहाँ से दूर चला गया। कालेखाँ अपने बचे-खुचे आदमी लेकर उससे जा मिला और दोनों अपने पालरवाले दस्ते से कई कोस के फासले पर कुछ समय उपरांत जा मिले। उस रात लोचनसिंह सिंहगढ़ में तो पहुँच गया, परंतु सो नहीं सका।
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