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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:३४:


कुंजरसिंह ने अपने सब आदमी इकट्ठे करके सिंधु नदी की ओर उत्तरवाले छोटे फाटक के आस-पास फैला दिए और उन्हें अपनी स्थिति समझा दी। वे लोग बहुत नहीं थे, परंतु आज्ञाकारी थे।

इतना करके अलीमर्दान के पास गया। 'नवाब साहब,' कुंजरसिंह ने साधारण शिष्टाचार के साथ कहा, 'लोचनसिंह का विरोध बड़ी सावधानी और कड़ाई के साथ करना पड़ेगा। उस सरीखा रण-सूर और रण-चतुर कठिनाई से कहीं और मिलेगा।'

'जरूर होगा।' अलीमर्दान ने रुखाई के साथ कहा, 'जब दुश्मन उसको बखान करते हैं, तो ऐसा ही होगा और इसमें कोई संदेह नहीं कि देवीसिंह की सेना में हम लोगों जैसे
काहिल बहुत कम होंगे।'

कुंजरसिंह इस प्रकट व्यंग्य से पीड़ित नहीं हुआ-कम-से-कम ऐसा उसकी आकृति से जाहिर नहीं होता था। बोला, 'यह अच्छा हुआ कि हम लोगों ने अपनी सेना को अनेक भागों में खंडित नहीं किया।' कुंजरसिंह ने कहा, 'अन्यथा इस समय हाथ में कुछ भी न रहता। पर खैर, अब गई-गुजरी बातें छोड़कर लोचनसिंह के मुकाबले की तैयारी
कीजिए।'

अलीमर्दान ने कहा, 'वह अच्छी तरह हो गई है। आप, कालेखाँ और रानी साहिबा किले के भीतर से लड़ें और मैं बाहर से लडूंगा। सब लोग भीतर बैठकर लड़ेंगे तो एक तरह से कैदियों की-सी हालत हो जाएगी।'

'मुझे यह सलाह पसंद है।' कुंजरसिंह ने एक क्षण सोचने का भाव दिखाते हुए कहा। वह बोला, 'आप किले की लड़ाई बहुत पसंद करते हैं, इसलिए मैंने यही तय किया है।
अलीमर्दान की 'यही तय किया है, इस बात को सुनकर कुंजरसिंह को बहुत सुख नहीं मिला।

वह अपने स्थान पर चला गया। थोड़े ही समय में उसे ज्ञात हो गया कि गढ़ का नायकत्व उसके हाथ में नहीं है और रानी के नाम की ओट में अलीमर्दान सेनापतित्व कर रहा है।

उसके छोटे से दल को भी यह बात विदित हो गई। अपनी प्रभुता के मद, अपनी आजादी के नशे में वह, पहले जिस आनेवाली मौत को दोनों हाथों झेलने के लिए तैयार था, अब उसके साक्षात्कार में उस उन्माद का अनुभव न कर सका।

लोचनसिंह एक बड़ी सेना लेकर तूफान की तेजी की तरह सिंहगढ़ पर चढ़ आया। चक्कर दिलवाकर उसने अपनी सेना का एक भाग सिंधु के उस पार किले के ठीक उत्तर में भेज दिया।

अलीमर्दान ने गढ़ से बाहर निकलकर उसका सामना किया। दो दिन की लड़ाई में दोनों ओर के बहुत से आदमी मारे गए। बार-बार लोचनसिंह विरोधी दल को गढ़ में भगा देने की चेष्टा करता था और अलीमर्दान उसे विफल-प्रयत्न कर डालता था। तीसरे दिन लोचनसिंह ने निरंतर आक्रमण जारी रखने के लिए अपनी सेना के अनेक दल बनाए, जो बारी-बारी से जागते, सोते और युद्ध करते थे। यद्यपि यह योजना बिलकुल सही तौर से अमल में न आ सकी, परंतु बहुत अंशों में सफल हुई और एक दिन-रात की लड़ाई में उसका प्रभाव अलीमर्दान की पीछे हटती हुई सेना पर पड़ा हुआ दिखाई देने लगा। गढ़ अभी लोचनसिंह से दूर था। थोड़ा-सा पीछे हटकर अलीमर्दान खूब जमकर लड़ने लगा। दिन-भर बहुत जोर की लड़ाई हुई। संध्या से जरा पहले उसकी कुल सेना दाएँ-बाएँ कटकर बहुत तेजी के साथ लड़ते-लड़ते भाग गई। आध-आध मील पश्चिम और पूर्व दिशाओं में भागने के बाद दूर पर एक जगह इकट्ठी होने लगी।


इस आकस्मिक दौड़-धूप में लोचनसिंह की सेना भी तितर-बितर हो गई। अँधेरा हो जाने के कारण दूर तक पीछा न कर सकी और लौट पड़ी। अलीमर्दान की सेना ने थोड़ी दूर पर सामने इकट्ठे होकर गोलाबारी शुरू कर दी, परंतु घड़ी-दो घड़ी बाद शांत हो गई।

लोचनसिंह की समझ में यह रहस्य न आया। थोड़ी देर सोचने के बाद उसने निश्चय किया कि अलीमर्दान किले में जा घुसा है, परंतु सामने कहीं-कहीं आग का प्रकाश देखकर उसका भ्रम दूर हो गया। विश्राम-प्राप्त दल को लेकर उसने तुरंत हमला करने का निश्चय किया। लोचनसिंह के निश्चय को मिटाने या ढीला करने की सामर्थ्य सेना में किसी में न थी, यद्यपि विश्राम-प्राप्त सैनिक भी और अधिक विश्राम प्राप्त करने के आकांक्षी थे।


घुड़सवारों ने आक्रमण किया। आक्रमण का वेग पहले कम, फिर प्रचंड हो उठा। जो घुड़सवार आगे थे, एक स्थान पर जाकर यकायक रुक गए। एकबारगी चिल्लाए, 'मत
बढ़ो, धोखा है।' और बहुत-से सवारों का चीत्कार और घोड़ों के मर्माहत होने का स्वर सुनाई पड़ा। तुरंत ही बंदूकों की बाढ़ पर बाढ़ दगने लगी।

गोलियों की भनभनाहट के बीचोंबीच लोचनसिंह अपना घोड़ा दौड़ाता हुआ उसी स्थान पर पहुंचा। देखा, सामने एक बड़ी गहरी और चौड़ी खाई है, जिसमें पड़े-पड़े घोड़े अपने टूटे सिर-पैर फड़फड़ा और घायल सिपाही कराह रहे हैं।

घोड़े की लगाम हाथ में पकड़े हुए, घुटने टेके हुए एक सैनिक से लोचनसिंह ने पूछा, 'इसमें कितने खप गए होंगे?'
'सैकड़ों।' उत्तर मिला।

'इसी स्थान पर?'

'इसी स्थान पर।'

'मैं लोचनसिंह हैं।'

'चामुंडरायजू, जुहार।'

"मेरे पीछे आओ। सब आओ।'

'मौत के मुंह में?'

'नहीं, मौत के मुंह से बचाने के लिए। अभागे, सब खाई में कूद पड़ो।'

लोचनसिंह की आज्ञा पर कोई सैनिक खाई में नहीं कूदा।

लोचनसिंह के शरीर में मानो आग लग गई। परंतु वह अपने सैनिकों को प्यार करता था, इसलिए उसने अपने कोप का किसी को लक्ष्य नहीं बनाया। परंतु शीघ्र कुछ करना था, इसलिए अपने पास तुरंत थोड़े से सैनिक इकट्ठे कर लिए।

बोला, 'साफा मेरी कमर में बाँधकर नीचे लटका दो। मैं वहाँ की दशा देखता हूँ। उसके बाद घोड़ों को छोड़कर और लोग भी इसी तरह उतर आओ। घोड़ों की लोथों और आदमियों की लाशों को इकट्ठा करके गड्डा पाट दो, और मार्ग बनाकर खाई को पार कर लो। एक घंटे के भीतर सिंहगढ़ हाथ में आ जाएगा। मैंने निश्चय किया है कि आज वहीं सोऊंगा।'

लोचनसिंह को नीचे अकेले न जाना पड़ा। कई सैनिक इसके लिए तैयार हो गए, परंत लोचनसिंह सबसे पहले नीचे उतरा। नीचे जाकर इन लोगों ने लाशों का ढेर लगाकर खाई में एक संकरा रास्ता बना लिया। वह इतना बड़ा था कि दो-तीन सवार एक साथ निकल सकते थे। दूसरी ओर से बंदूकें चल रही थीं, परंतु लोचनसिंह आगे और उसके सवार पीछे-पीछे खाई पार करके दूसरी ओर पहुँच गए। अलीमर्दान ने कल्पना नहीं की थी कि लोचनसिंह की सेना खाई पार करके इतनी शीघ्र आ जाएगी। उसने इस खाई के पश्चिमी तथा पूर्वी सिरों पर ब्यूह बना लिया था और बीच की पाँत को जरा पीछे हटाकर जमा किया था। सिरेवाली टुकड़ियों ने उसके बंधे हुए इशारे पर काम नहीं किया, नहीं तो जिस समय आरंभ में ही लोचनसिंह के बहुत से योद्धा खाई में गिरे और शोर हआ, सिरेवाली टुकड़ियाँ इन पर दोनों ओर से हमला कर देतीं तो लोचनसिंह की सेना का एक बहुत बड़ा भाग बहुत थोड़ी देर में नष्ट हो जाता। लोचनसिंह की सेना व एक बड़े दल ने खाई पार करके तुमुल-ध्वनि के साथ जयजयकार किया। खाई के उसी तरफ पीछे जो लोग रह गए थे, उन्होंने भी जयकार किया। किले के ऊपर से तोपें गोले उगलने लगीं। खाई के दोनों सिरों की टुकड़ियाँ किले की ओर भागीं। इस गोलमाल में अलीमर्दान की बीच की पाँत भी पीछे हटी। किले की तोपों ने शत्रु और मित्र का भेद न पहचाना। दोनों दलों के अनेक लोग इन गोलों से चकनाचूर हो गए।

अलीमर्दान ने किले के भीतर घुसकर युद्ध करना पसंद नहीं किया। वह पूर्व की ओर दूरी पर अपनी सेना लेकर चला गया। यद्यपि वह चतुराई के साथ पीछे हटने में बड़ा दक्ष था, परंतु इस लड़ाई में उसका नुकसान हुआ।


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