ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
जिस समय अलीमर्दान और रामदयाल की बातचीत होरही थी, करीब-करीब उसी समय कुंजरसिंह छोटी रानी के पास था।
छोटी रानी उससे कह रही थीं, तो तुम्हारा यह तात्पर्य है कि यहाँ हम लोग कोई न आते, तुम्हें यहीं लड़ने, सड़ने और मरने दिया जाता। ठीक है न कुंजरसिंह?'
'आपके दर्शनों से तो मेरे पाप कटते हैं।' कुंजरसिंह ने कहा, 'परंतु अलीमर्दान को नहीं बुलाना चाहिए था।'
'अलीमर्दान को न बुलाया होता, तो सर्वनाश हो गया होता। उसने तो वैसे भी चढ़ाई कर दी थी। उसे रोक ही कौन सकता था? और दलीपनगर के पूर्व राजा इस तरह की सहायता का आदान-प्रदान पहले से भी करते आए हैं।'
'परंतु जिस प्रयोजन से वह आया है, वह आपको मालूम है?'
'वह जनार्दन और लोचनसिंह को सूली देने आया है। यदि वह इसमें सफल हो जाए, तो मैं कहूँगी कि बहुत अच्छा हुआ। और अधिक जानने की मुझे जरूरत नहीं।'
'वह पालर की देवी और उनका मंदिर नष्ट करने आया है। आपको यह बात स्मरण रखनी चाहिए।'
रानी ने झल्लाकर कहा, 'मुझे क्या बात स्मरण रखनी चाहिए, मैं इसे बहुत अच्छी तरह जानती हूँ। इसे सुझाने के लिए मुझे तुम जैसे लोगों की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि तुम साथ रहकर लड़ाई करना चाहो, तो अच्छा है। यदि तुम्हारे मन को न भावे, तो जिस तरह चाहो, लड़ो, या उस धर्मद्रोही, स्वामिघाती जनार्दन की शरण चले जाओ
और हम लोगों का अशुभ चिंतन करो।'
कुंजरसिंह का कलेजा हिल गया। नम्रतापूर्वक बोला, 'महाराज रुष्ट न हों। आप राज्य करें। मुझे राज्य की उतनी अधिक परवाह नहीं। यदि होगी भी, तो जनार्दन इत्यादि को दंड देने के उपरांत जो कुछ भाग्य में होगा, पाऊँगा।'
इस नम्रता में दृढ़ता की गूंज सुनकर रानी कुछ नरम पड़ीं। बोलीं, 'अलीमर्दान का वह प्रयोजन नहीं, जो तुम समझरहे हो। उसने मेरी राखी स्वीकार की है, मुझे बहिन की तरह माना है। हिंदुओं का धर्मनाश उसका कदापि उद्देश्य नहीं है। ऐसी हालत में तुम्हें व्यर्थ के संदेहों में माथापच्ची नहीं करनी चाहिए।'
इतने में वहाँ रामदयाल आ गया। रानी के पास किसी समय भी आने की उसे मनाही नहीं थी।
रानी ने उससे कहा, 'रामदयाल, आगे के लिए क्या ढंग सोचा गया है?' कुंजरसिंह की ओर संकेत करके उसने उत्तर दिया, 'जैसा निश्चय किया जाए, वैसा होगा।'
'अभी तक कुछ निश्चय नहीं हुआ?' रानी बोली।
कुंजरसिंह ने कहा, 'अलीमर्दान की राय सेना को टुकड़ियों में विभक्त करके इधर-उधर बिखेरने की है। सेना का अधिक भाग वह सिंहगढ़ में रखना चाहते हैं। यदि देवीसिंह की सेना ने किसी ओर से प्रचंड वेग के साथ चढ़ाई कर दी, तो सिंहगढ़ हाथ से चला जाएगा और बिखरी हुई टुकड़ियाँ कभी संयुक्त न हो पाएंगी।'
रानी झुंझलाकर बोली, 'रामदयाल, क्या इसी तरह का युद्ध करने की बात अलीमर्दान ने कही है?'उसने उत्तर दिया,'ठीक इसी तरह की तो नहीं कही है। नवाब साहब दलीपनगरको अधिकृत करने के लिए पर्याप्त सेना भेजना चाहते हैं।'
रामदयाल की बात कुंजरसिंह को कभी अच्छी नहीं लगती थी। इस समय और भी प्रखरता के साथ पड़ गई। बोला, 'तो कक्कोजू, रामदयाल को सेनानायक बना दें। बस, प्रधान सेनापति अलीमर्दान और सहकारी सेनाध्यक्ष रामदयाल। इसे यदि इन बातों के दखल से दूर रखा जाए, तो कुछ हानि न होगी।'
अपने इस क्षोभ पर कुंजरसिंह को तुरंत पछतावा हुआ। कुछ कहना ही चाहता था कि रामदयाल ने बहुत विनीत भाव के साथ कहा, 'कक्कोजू ने पूछा था, इसलिए मैंने निवेदन किया। यदि कोई अपराध किया हो, तो क्षमा कर दिया जाऊँ। मैं तो सदा भगवान् से यह मनाया करता हूँ कि आप लोगों के चरणों में पड़ा रहूँ।'
रानी ने पूछा, 'तब क्या कार्यक्रम स्थिर किया?' कुंजरसिंह ने उत्तर दिया, 'हमारी कुछ सेना सिंहगढ़ में रहे, बाकी दलीपनगर पर धावा कर दे और अलीमर्दान अपनी सेना लेकर देवीसिंह पर छापा मारे।'
रानी ने रामदयाल की ओर देखते हुए कहा, 'अलीमर्दान को पसंद आवेगा?' 'नहीं आवेगा महाराज।' रामदयाल ने उत्तर दिया। कुंजरसिंह ने कहा, 'मैं नवाब से बात करूंगा।' दूसरे दिन सवेरे कुंजरसिंह ने अलीमर्दान से अपने संकल्प के अनुरूप कराने की चेष्टा की, परंतु सफल न हुआ। अलीमर्दान सिंहगढ़ को अपने अधिकार से बाहर नहीं होने देना चाहता था और कुंजरसिंह अलीमर्दान को प्रबलता के किसी विस्तृत कोण पर स्थित नहीं देखना चाहता था। दो-तीन दिन इसी विषय को लेकर वाद-विवाद होता रहा। इसका फल यह हुआ कि सहज निर्णयशीला रानी कुंजरसिंह को किले के बाहर निकाल देने की कल्पना करने लगी।
अलीमर्दान को रानी का यह भाव कुछ-कुछ अवगत हो गया। उसका व्यवहार कुंजरसिंह के साथ कड़आ होने की अपेक्षा दो-तीन दिनों में अधिक शिष्ट हुआ। उन दो-तीन दिनों में कोई सेना कहीं नहीं भेजी गई। अलीमर्दान ने मुस्तैदी के साथ खाद्य सामग्री इकट्टी कर ली। परंतु तीन दिन के उपरांत भीरण की योजना अनिश्चित ही थी।
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