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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:३२:

उसी दिन लोचनसिंह के रुष्ट होकर चले जाने पर जनार्दन बहुत चिंतित हुआ। वह उसके हठी स्वभाव को जानता था। इसलिए उस समय मनाने के लिए नहीं गया।
देवीसिंह को सूचित नहीं कर सकता था, क्योंकि वह जानता था कि बात और बिगड़ जाएगी।


राजधानी में बलवा ऊपर से देखने में दब गया था, परंतु शांत नहीं हुआ था। जिन लोगों ने यह विश्वास करके उपद्रव किया था कि देवीसिंह यथार्थ में राज्य का अधिकारी नहीं है, बड़ी रानी अनुचित रूप से देवीसिंह का साथ दे रही हैं और छोटी रानी अन्याय पीड़ित हैं, उन लोगों के कुचल दिए जाने से भावों की तरंग नहीं कुचली जा सकी, प्रत्युत वह भीतर-ही-भीतर और भी प्रबल और प्रचंड हो उठी। जनार्दन इस बात को जानता था, इसलिए लोचनसिंह जैसे सबल योद्धा और सेनापति को ऐसे गाढ़े समय में हाथ से नहीं खो सकता था।

परंतु लोचनसिंह की प्रकृति में ऐसी बातों के सोचने के लिए बहुत ही कम स्थान था। जनार्दन कुछ समय का अंतर देकर बिना किसी ठाठ-बाट के अकेला लोचनसिंह के घर गया।
जाते ही हाथ बाँधकर खड़ा हो गया। बोला, 'आज एक भीख माँगने आया हूँ।'


सैनिक लोचनसिंह ने बँधे हुए हाथ छुड़ा दिए। कहने लगा, 'पंडितजी, मुझे हाथ जोड़कर पाप में मत घसीटो।'

'भीख माँगने आया हूँ। इससे तो आप ब्राह्मणों को वर्जित नहीं कर सकते!' 'मैं आपकी सब करामात समझता हूँ। आप जो कुछ माँगें, दे डालूंगा; परंतु बात न दूंगा। मैं सिंहगढ़ न जाऊँगा।' परंतु लोचनसिंह के स्वर में निश्चय की ऐंठ न थी।


जनार्दन ने तुरंत कहा, 'उसके विषय में जो आपको उचित दिखलाई पड़े, सो कीजिए। मैं और एक भीख माँगने आया हूँ।'

लोचनसिंह ने गंभीर होकर पूछा, और क्या पंडितजी?'
जनार्दन ने राज्य की मुहर लोचनसिंह के सामने डालकर कहा, 'सिंहगढ़ मत जाइए। कहीं न जाइए। यह मुहर लीजिए और दीवानी काम कीजिए। मेरे बाल-बच्चों की रक्षा का भार लीजिए और मुझे बिदा दीजिए। मैं बदरीनारायण जाता हूँ। ग्रीष्म ऋतु आने तक वहाँ पहुँच जाऊँगा। यदि कभी लौटकर आ सका और दलीपनगर को बचा-खुचा देख सका, तो बाल-बच्चों का भी मुंह देख लूंगा, अन्यथा ब्राह्मणों को तीर्थ में प्राणत्याग करने का भय नहीं है।'


लोचनसिंह ने अचंभे के साथ कहा, 'मैं दीवानी करूंगा? दीवानी में क्या-क्या करना होता है, इसे जानने की मैंने आज तक कभी कोशिश नहीं की। यह मुझसे न होगा।'

आतंक के साथ ब्राह्मण बोला, 'यह भी न होगा, वह भी न होगा, तब होगा क्या? बात देकर बदलता आपको आज ही देखा, अभी-अभी आपने क्या कहा था?'
लोचनसिंह की आँख के एक कोने में एक छोटा-सा आँसू ढलक आया। बोला, 'मैं हार गया।
'क्या हार गए?' भीख न दोगे?' जनार्दन ने पूछा।
'सिंहगढ़ जाऊँगा। या तो सिंहगढ़ राजा को दे दूँगा या कभी अपना मुंह न दिखाऊँगा।' लोचनसिंह ने उत्तर दिया, 'अभी सेना लेकर रवाना होता हूँ।'
जनार्दन ने मन में कहा-अब राजा के पास लोचनसिंह के इस प्रण का समाचार भेजूंगा।

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