ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
बड़नगर के राजा को अलीमर्दान ने आश्वासन दे दिया था कि उसकी प्रजा के साथ किसी प्रकार का दुर्व्यवहार न किया जाएगा और न मंदिर को नष्ट किया जायेगा। दलीपनगर के राजा को दंड देना, राज्य-च्युत करके हलवाहे का हलवाहा कर देना ही सिर्फ मेरी मंशा है।
दलीपनगर और बड़नगर वर्षों से दिल्ली के मातहत राज्य थे, परंतु परस्पर स्वतंत्र थे। उनकी दिल्ली की मातहती भी दिल्ली के बल के हिसाब से घटती-बढ़ती या तिरोहित होती रहती थी। इस समय इनमें से कोई भी दिल्ली के प्रति व्यावहारिक रूप में अपनी अधीनता प्रकट नहीं कर रहा था; लेकिन खुल्लमखुल्ला विरोध भी न था। दिल्ली के बड़े कर्मचारियों या सेनानायकों से उनकी इन दिनों कोई घोषित लड़ाई न थी। नाम-मात्र की भी पराधीनता से बच निकलने के अवसर की ताक में अवश्य थे परंतु इस समय दलीपनगर का पक्ष लेकर अलीमर्दान से युद्ध छेड़ बैठना समयानुकूल नहीं समझा गया।
दलीपनगर दुविधा में था। एक ओर सिंहगढ़ का घेरा, दूसरी ओर अलीमर्दान; घर में छोटी रानी का भय और पूर्व-दुर्व्यवस्था से राज्य को निकालकर वर्तमान में संगठन का आयोजन।
इसलिए पालर तक पहुँच जाने में अलीमर्दान की रोक-टोक न की गई। शायद रास्ते में विराटा-सदृश छोटे-छोटे रजवाड़े कुछ विघ्न उपस्थित कर दें, परंतु यह कल्पना सफल न हुई।
अलीमर्दान जब पालर पहुँचा, उसे वहाँ सिवा किसानों के कोई नहीं मिला। मंदिर का निरीक्षण करने गया। साथ में उसका एक सरदार था। अलीमर्दान ने सरदार से कहा, 'मंदिर तो बहुत छोटा है कालेखाँ। मैंने बहुत बड़े-बड़े मंदिर देखे हैं। क्या इसी के ऊपर उन लोगों को इतना नाज था?'
'हुजूर, इस जगह को उन लोगों ने अपनी नाक बना रखा है। पुजारिन कहीं भाग गई होगी, मगर पता लग जाएगा। बुंदेलखंडी लोग भागते भी हैं, तो घर छोड़कर दूर नहीं जाते।'
'तुम्हारे साथ किस जगह लोचनसिंह लड़ा था?' कालेखाँ ने स्थान बतलाकर कहा, 'इस जगह, हुजूर।' 'और वह कहाँ थी?'
लड़ाई के समय कुमुद जिस स्थान पर अपने पिता के साथ कुंजरसिंह की अभिभावकता में खड़ी थी, वह स्थान भी अलीमर्दान को बताया गया। यह सब देख भालकर और आसपास के रास्ते, छिपाव और आक्रमण के स्थानों की परीक्षा करके संध्या के पहले अलीमर्दान कालेखाँ को साथ लेकर झील पर गया।चारों ओर पहाड़ों से घिरी हुई झील के पूर्वोत्तरीय किनारे पर पहाड़ी से सटा हुआ नीचे की ओर पालर गाँव। उसी किनारे के ऊपरी भाग पर जाकर अलीमर्दान कालेखाँ
के साथ एक चट्टान पर बैठ गया।
झील में लहरें उठ-उठकर बैठ रही थीं और सूर्य की किरणों का एक अनंत भंडार-सा प्रतीत हो रहा था। जैसे स्वर्ण की खानें खुल पड़ी हों और चारों ओर से विशाल ढोंके और पर्वत अपनी निधि की रक्षा के लिए तुले खड़े हों।
'पानी का बड़ा सहारा है यहाँ कालेखाँ। यहीं से दस्ते बना-बनाकर हमला करना अच्छा है।''बेहतर है हुजूर।' 'दो दिन सामान इकट्ठा कर लो। तीसरे दिन धावा कर दिया जाए। सिपाहियों को इस बीच में आराम भी मिल जाएगा।'
'मुसलमान सिपाहियों की एक ख्वाहिश है हुजूर।' 'क्या?' कालेखाँ बोला, 'पहले मंदिर तोड़ डाला जाए।
मुसकराकर अलीमर्दान ने कहा, 'ताकि चढ़ाई की मुश्किलें और भी बढ़ जाएँ। यह न होगा। बल्कि तुम कड़ा पहरा मंदिर पर लगवा दो। अगर मंदिर की एक ईंट का टुकड़ा भी किसी ने उखाड़ा, तो धड़ से सिर अलग करवा दूंगा। समझ गए कालेखाँ।'
नीची गरदन करके कालेखाँ ने उत्तर दिया, 'हजुर।' थोड़ी देर में नमाज का वक्त होने के कारण दोनों पहाड़ी से उतर आए। इतने में एक सिपाही ने सूचना दी कि दलीपनगरसे कोई मुजरा करने के लिए आया है। उससे नमाज के बाद तक ठहरने के लिए कह दिया गया।
नमाज के बाद अलीमर्दान से दलीपनगर का जो मनुष्य मिला, वह रामदयाल था। उस समय अलीमर्दान के पास कालेखाँ के सिवा और कोई न था।रामदयाल ने कहा, 'मैं सरकार के पास राखी लाया हूँ।' 'राखी!' अलीमर्दान आश्चर्य से बोला, 'किसने भेजी है? परंतु तुम जवाब दो या न दो, मैं राखी मंजूर न करूंगा।'
'ऐसा कभी नहीं हुआ है।' रामदयाल अपने कपड़ों के भीतर हाथ बढ़ाता हुआ बोला।'
अलीमर्दान ने कहा, 'वह जमाना अब नहीं है। मैं राखियाँ लेने-देने के लिए नहीं आया हूँ। मेरे आने का प्रयोजन स्पष्ट है। और यह तो मैंने आज ही सुना है कि दलीपनगर के मर्द भी राखी भेजते हैं।'
'नहीं हुजूर।' रामदयाल ने कपड़ों में से रेशम की एक छोटी-सी पोटली निकालकर दृढ़ता के साथ कहा, 'यह राखी दलीपनगर की रानी ने भेजी है। ग्रहण करनी होगी। बुरी अवस्था में हैं।'
नफरत-भरी निगाह से देखते हुए अलीमर्दान बोला, 'तुम्हारा नया राजा इतना गिरकर रानी के जरिए क्यों शरण माँगता है? छोटी-छोटी-सी दो शर्ते पूरी करने में कौन-से पहाड़ खोदने पड़ेंगे?'
रामदयाल ने उत्तर दिया, 'यह राखी राजा ने नहीं भिजवाई है!' 'उसका फल एक ही है, लौटा ले जाओ।' । 'यह राखी लौट नहीं सकती। मृत महाराज की छोटी रानी ने भेजी है। जो नए राजा के विरुद्ध आपसे सहायता चाहती हैं।'
अलीमर्दान चौंक पड़ा। 'छोटी रानी की राखी मंजूर है।' वह एक क्षण बाद बोला, 'जाओ, आज से वह मेरी धर्म की बहिन हुई।'रामदयाल ने प्रसन्नतापूर्वक अलीमर्दान को राखी दे दी। उसने पगड़ी में रख ली। फिर रामदयाल से उसने एक-एक करके रियासत संबंधी सब वृत्त पूछ डाला।
सब हाल सुनकर कालेखाँ से बोला, 'तुम एक दस्ता लेकर कुंजरसिंह की मदद के लिए सिंहगढ़ जाओ। मैं दूसरे दस्ते से दलीपनगर पर धावा करता हूँ।'
कालेखाँ ने स्वीकार किया।
दूसरे दिन कालेखाँ एक दस्ता लेकर सिंहगढ़ की ओर रवाना हो गया। अलीमर्दान ने रामदयाल को अपने शिविर में एक-दो दिन के लिए रोक लिया।
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