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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:२३:
गाँव के जो स्त्री-पुरुषविराटा की टौरिया (अब उस स्थान को इसी नाम से पुकारना चाहिए) पर आते थे, उनके साथ कुमुद की बातचीत वरदानों और तत्संबंधी विषयों के अंतर्गत अधिक होती थी। अन्य विषयों की बातचीत सनने के लिए वह कभी-कभी उत्कौठत हो जाती थी। परंतु पूजक और भक्त लोग ऐसे विषयों की चर्चा उसके सामने नहीं करते थे। पूजक और पूज्य के बीच में श्रद्धा ने जो अंतर उपस्थित कर रखा था, वह कुमुद को असह्य हो उठा, किंतु वह ऐसी अधीर न थी कि उसका आतुरता के साथ उल्लंघन कर सकती।

कुंजरसिंह के विद्रोह और अलीमर्दान की अवश्यंभावी चढ़ाई का समाचार यथासमय टोरिया पर पहुँचा। गोमती ऐसे सब समाचारों को जासूसों की तरह खोद निकालने में निमग्न थी।

दो-एक दिन से गोमती कुमुद को किसी उदासी में, किसी असमंजस में उलझी हुई-सी देख रही थी। रात को उन दिनों कोई बात नहीं हुई। गोमती को संदेह हुआ कि कहीं कुंजरसिंह के उत्तराधिकारी को दलित समझकर देवी ने दूसरों पर स्वत्व-भंजन और अनुचित अपहरण के आरोप की कल्पना न की हो। कुंजरसिंह के विद्रोह और अलीमर्दान के आक्रमण में अपनी बात कहने के लायक सामग्री पाकर रात्रि के आगमन के लिए व्यग्र हो उठी।


गोमती को उस दिन जान पड़ा कि सूर्यदेव बहुत मचल-मचलकर अस्ताचल गए, अंधकार ने प्रकाश को घोर लड़ाइयों के बाद दबा पाया और उसके अभाग्य से कुमुद, लेटने की कोठरी में बड़ा विलंब करके आई। गोमती ने तुरंत वार्तालाप आरंभ किया। कुमुद से पूछा, 'आज का कुछ समाचार आपने सुना है?' उसने कहा, 'मुझे पूजन से अवकाश ही नहीं मिलता।' स्वर में कोई क्षोभ न था, परंतु कोमल होने पर भी उसमें संगीत की मंजुलता न थी-जैसे कोयल ने दूर किसी सघन वन में वायु के झोंकों की गति के प्रतिकूल कूक लगाई हो।


'उस दिन मैंने कुमार कुंजरसिंह के विषय में जैसा सुना था, बतलाया था। राज्य न मिलने के कारण असंतुष्ट होकर उन्होंने एक बड़ा भारी उपद्रव खड़ा कर दिया है।'

एक क्षण के लिए कुमुद की देह थर्रा गई। परंतु उसने अपने सहज स्वर में उत्सुकताज्ञापन न करते हुए पूछा, 'क्या सुना है गोमती आज?' .
'मैंने यह सुना है।' गोमती ने उत्तर दिया, 'कि दासीपुत्र कुंजरसिंह ने राज्य-विद्रोह किया है। सिंहगढ़ पर अनधिकार चेष्टा से दखल कर लिया है और इस अनुचित, अधर्मपूर्ण युद्ध में मनुष्यों के सिर काट और कटवा रहे हैं। छोटी रानी, जो मृत राजा को विष देकर मार डालना चाहती थीं, उनका साथ दे रही हैं। गृह-कलह की ऐसी आग दोनों ने मिलकर सुलगा दी कि दलीपनगर का राज्य राख में मिल जाने ही को है।'


कुमुद के हृदय से एक उष्ण उसाँस निकली। गोमती कहती गई, 'इधर कालपी के मुसलमान सूबेदार ने चढ़ाई कर दी है। वह अपने विराटा के पास से होकर आजकल में ही निकलनेवाला है। उसका प्रयोजन पालर के मंदिर को विध्वंस करने का है। उसने आपके विषय में जो वासना प्रकट की है, उसे कहने से मेरी जीभ के खंड-खंड हो जाएंगे।'

अंतिम बात सुनकर कुमुद क्या कहती है, इसकी प्रतीक्षा एक क्षण करने के बाद गोमती ने फिर कहा, 'गृह-कलह, जो कुमार कुंजरसिंह ने खड़ी कर दी है, कदाचित् इस 'अलीमर्दान के मुँह मोड़ने में दलीपनगर राज्य को. कुंठित कर दे। प्रार्थना है, आप नए राजा को ऐसा अदमनीय बल दें कि नए महाराज कुंजरसिंह के विद्रोह को कुचलकर अलीमर्दान की अधर्म-कुचेष्टा को नष्ट-भ्रष्ट करने में समर्थ हों।'


कुमुद देर तक सोचती रही। थके हुए कुछ काँपते हुए बारीक स्वर में बोली, 'गोमती, सो जाओ, फिर कभी बात करूँगी। नींद आ रही है।'

परंतु भक्त का हठ चढ़ चुका था। गोमती बोली, 'नहीं देवी, आज वरदान देना होगा, जिसमें कोई अनिष्ट न हो। यदि कहीं आपने समझ लिया कि कुंजरसिंह का पक्ष न्यायसंगत है,तोदलीपनगर का, संसार-भरका सर्वनाश हो जाएगा। यदि दलीपनगर के धर्मानुमोदित महाराज कुंजरसिंह से हार गए, यदि अलीमर्दान ने ऐसी अव्यवस्थित अवस्था में राज्य पाया, तो आपके मंदिर का क्या होगा? धर्म का क्या होगा? अन्य राजा अपनी तर्जनी भी मंदिर की रक्षा में न उठावेंगे। विराटा राज्य में इतनी शक्ति नहीं कि अलीमर्दान का मर्दन कर सके। इसलिए जननी! रक्षा करो, बचाओ।'


गोमती कुमुद के पैरों से लिपट गई और आँसुओं से कुमुद के पैर भिगो दिए।

कुमुद ने कठिनाई से उसे छड़ाकर अपने पास बैठा लिया। सिर पर हाथ फेरकर बोली, 'क्या चाहती हो गोमती? जो कुछ कहोगी, उसके लिए माता दुर्गा से प्रार्थना करूँगी। यह निश्चय जानो कि माता का मंदिर भ्रष्ट न होने पावेगा। उसकी रक्षा भगवती करेगी।'


'तो मैं यह वरदान चाहती हैं!' गोमती ने अंधेरे में हाथ जोड़कर कहा, 'यह भीख माँगती हूँ कि कुंजरसिंह का नाश हो, अलीमर्दान मर्दित हो और दलीपनगर के महाराज की जय हो।'

ये शब्द उस कोठरी में गूंज गए, कलकल शब्दकारिणी बेतवा की लहरावली पर उतरा उठे। कुमुद को उस कोठरी में एक क्षण के लिए चमक-सी जान पड़ी और शून्य गगन आंदोलित-सा।


कुमुद ने कुछ समय पश्चात् शांत, स्थिर स्वर में कहा, 'यह न होगा गोमती। परंतु मंदिर की रक्षा होगी और अलीमर्दान का मर्दन होगा, इसमें कोई संदेह नहीं।' ।

'यह वरदान नहीं है।'

गोमती ने प्रखर स्वर में कहा, 'यह मेरे लिए अभिशाप है देवी। मैं इस समय इस तपोमय भवन में इस बेतवा के कोलाहल के बीच चरणों में अपना मस्तक काटकर अर्पण करूंगी।'

कुमुद ने देखा, गोमती ने अपनी कमर से कुछ निकाला।

कुमुद ने कहा, 'क्या करती हो? ऐसा मत करना।'

'भक्त के कटे हुए सिर पर ही दुर्गा का अधिकार है, अन्यथा नहीं। वरदान दीजिए या सिर लीजिए।'

'मैं बतलाती हूँ। ठहरो।' कुमुद ने कहा और कुछ क्षण तक कुछ सोचती रही। फिर दृढ़तापूर्वक बोली, 'तुम्हारे राजा का राज स्थिर रहेगा। मंदिर बचेगा और अलीमर्दान की जय न होगी। तुम्हें इससे अधिक और क्या चाहिए?'


गोमती संतुष्ट हो गई, फिर पैर पकड़ लिए। कुमुद ने उसे धीरे से हटाकर रुखाई के स्वर में कहा, 'जाओ सोओ। भविष्य में कभी फिर उस राजकुमार का वर्णन करोगी, तो अच्छा न होगा।'


गोमती चुपचाप जा लेटी।

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