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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

: २०:
मौका मिलते ही रामदयाल ने छोटीरानीको जनार्दन द्वारा अपमानित होने की बात सुना दी। रानी के क्रोध का पार न रहा। बोलीं, 'मैं तब अन्न-जल ग्रहण करूँगी, जब जनार्दन का सिर काटकर मेरे पास ले आवेगा।' .. रामदयाल को विस्मय हुआ, वह रानी के हठी स्वभाव को जानता था। उसकी यह कल्पना न थी कि बात इतनी बढ़ जाएगी। बोला, 'अभी काकाजू की तेरहीं नहीं हुई है; जब हो जाएगी, तब इस काम के होने में देर नहीं लगेगी।'
'तेरहीं होने के दो-तीन दिन रह गए हैं। मैं तब तक बिना अन्न-जल के रहूँगी।' 'ऐसा न करें महाराज, यदि शरीर को कुछ क्षति पहुँची, तो जो कुछ थोड़ी-सी आशा है, वह भी नष्ट हो जाएगी।' 'यदि जनार्दन मार डाला गया, तो मानो राज्य प्राप्त हो गया। उसी के प्रपंच से आज मैं इस दशा को पहुँची हूँ। उसी के षड्यंत्रों से राज्याधिकार से वंचित रही, उसी की धूर्तता के कारण सती न हो पाई। बोल, तू उसका सिर काट सकेगा?' 'मैं आज्ञापालन से कभी न हिचकूँगा।' रामदयाल ने उत्तर दिया, 'फिर चाहे चरणों

की सेवा में मुझे अपने प्राण भले ही उत्सर्ग करने पड़ें।'


'तब ठीक है।' रानी ने जरा संतोष के साथ कहा, 'परंतु अन्न-जल तभी ग्रहण करूंगी।'


रामदयाल ने विषयांतर के प्रयोजन से कहा, 'कालपी से अलीमर्दान की सेना आ रही 'आती होगी, मुझे उसकी कोई चिंता नहीं।' 'इधर से सिंहगढ़ की ओर सेना भेजी गई है। बहुत-सी तोपें भी गई हैं। जनार्दन को इस समय अलीमर्दान इतना शत्रु नहीं जान पड़ रहा है जितना कुंजरसिंह राजा।'


रानी ने चकित होकर पूछा, 'कुंजरसिंह को समाचार भेज दिया या नहीं?' उत्तर दिया, 'कड़ा पहरा बिठलाया गया है। गुप्तचर वेश बदलकर घूम रहे हैं। वहाँ जाने के लिए मेरे सिवा और कोई नहीं है।'

रानी बोली, 'तुम्हारे चले जाने से यहाँ मेरे निकट कोई विश्वस्त आदमी नहीं रहेगा। तुम किसी तरह उनके पास यह समाचार पहुँचा दो कि सिंहगढ़ की रक्षा के लिए अधिक मनुष्य एकत्र कर लो, तब तक मैं अन्य सरदारों को ठीक करती हूँ।'
'परंतु दूसरा काम भी मेरे सुपुर्द किया गया है।' रामदयाल ने बनावटी संकोच के साथ कहा।

छोटी रानी गए-गुजरे पक्ष के लिए हार्दिक अभिलाषा तक का बलिदान कर डालनेवालों के स्वभाव की थीं। बोलीं, अच्छा जनार्दन का शीश काटने के लिए एक सप्ताह का समय देती हूँ। एक सप्ताह के पश्चात् मेरा व्रत आरंभ हो जाएगा। अभी स्थगित किए देती हैं। जल्दी कर।'
सिर खुजलाते हुए अत्यंत दीनतापूर्वक रामदयाल ने कहा, 'सेना को सिंहगढ़ की ओर गए हुए देर हो गई है। बहुत तेज घोड़े की सवारी से ही इस सेना से पहले सिंहगढ़ पहुंचा जा सकता है। इधर जनार्दन की हम लोगों पर बड़ी पैनी आँख है। कोई अन्य विश्वसनीय आदमी हाथ में नहीं।'
'अच्छा, मैं पुरुषवेश में सिंहगढ़ जाती हूँ।' रानी ने तमककर कठिनाइयों का निराकरण किया, 'देखें मेरा कोई क्या करता है?'

परंतु धीरे से रामदयाल ने कहा, 'महाराज, इस तरह अपने महल को छोड़कर स्वयं देश-निष्कासित होने से कुंजरसिंह राजा को कोई सहायता आपके द्वारा न मिलेगी और निश्चित स्थान से अनिश्चित स्थान में भटकने की नई कठिनाई का भी सामना करना पडेगा।'


रानी की आँख से चिनगारी छूट पड़ी। 'मैं दलीपनगर के इस बिल में चूहे की मौत नहीं मरूँगी।' रानी ने कहा, 'बड़ी की तरह नहीं हूँकि ऐरों-गैरों का उस पवित्र सिंहासन पर बैठना सह लूँ। घोड़ा तैयार करवा। हथियार और कवच ला।'


रामदयाल आज्ञापालन के लिए चला, फिर लौटकर हाथ बाँधकर खड़ा हो गया।

रानी डपटकर बोलीं, 'क्या मैं ही तेरी खाल खींचूँ? जानता है क्षत्रिय-कन्या हूँ, अपने हाथ से भी घोड़े पर जीन कस सकती हैं।'
'महाराज!' रामदयाल बड़बड़ाया।
रानी ने अपने कोषागार से तलवार, ढाल और दो पिस्तौलें निकाल लीं। मुसकराकर कहा, जैसे सावन की अँधेरी रात में बादलों के भीतर बिजली की एक रेखा थिरक गई हो, 'तझे हथियार उठा लाने का प्रयत्न न करना पड़ेगा। घोड़ा कस सकेगा?'
'महाराजा' रामदयाल ने कपित स्वर में कहा, 'मैं भी साथ चलूंगा। यदि सर्वनाश ही होना है, तो हो। नहीं तो पीछे मेरी लाश को किसी घरे पर गीध और गीदड़ नोचेंगे।'
रानी थककर चौकी की तकिया के सहारे बैठ गईं। एक क्षण बाद पूछा, 'बोल, क्या कहता है?' "एक उपाय है। आज्ञा हो, तो निवेदन करूं?' 'कहता क्यों नहीं मूर्ख! क्या ताम्रपत्र पर खुदवाकर आज्ञा दै?'


रामदयाल ने स्थिरता के साथ उत्तर दिया, 'अलीमर्दान की सेना दलीपनगर पर आक्रमण करने आ रही है। अभी दूर है, परंतु थोड़े दिन में अवश्य ही निकट आ जाएगी। जनार्दन उस सेना से युद्ध करने की तैयारी कर चुका है। लड़ाई अवश्य होगी।


संधि के लिए कोई गुंजाइश नहीं रही। हो भी, तो कोई चिंता नहीं।'

'यह सब क्या पहेली है रामदयाल?' रानी ने झुंझलाकर पूछा, 'सीधी तरह कह डाल, जो कुछ कहना हो।'


रामदयाल ने उत्तर दिया, 'अन्नदाता, अलीमर्दान ने अपने राज्य का कुछ नहीं बिगाड़ा था। लोचनसिंह दाऊजी ने नाहक उसकी फौज के एक सरदार को मार डाला। यदि वह बदला लेने के लिए आ रहा है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। मंदिर और दुर्गाजी के अपमान की बात बिलकुल बनावटी है। अलीमर्दान को केवल रुपए से गरज है। रानी उठ खड़ी हुई। आँखें जल रही थीं, परंतु धीमे स्वर में बोलीं, 'देख रामदयाल, यदि तू पागल हो गया है, तो तेरी कोई दवा-दारू न होगी। मैं एक ही बार में तेरा सब रोग बहा दूँगी। जनार्दन का मद दूसरे बार में शांत हो जाएगा; फिर यदि यह राज्य अलीमर्दान को मर्द डाले तोचिंता नहीं और यदि वह इसे, तो भी चिंता नहीं। यदि तेरी बात समाप्त हो गई हो और तू अचेत न हो, तो तुरंत घोड़ा कस ले।'


रामदयाल वहाँ से नहीं टला। शीघ्रतापूर्वक बोला, 'कई बार दिल्ली के बादशाहों का साथ इस राज्य ने दिया है। अब की बार दिल्ली के सरदार से यदि सहायता ली जाए, तो क्या बुराई है?'

रानी बैठ गईं, सोचने लगीं। सोचती रहीं।

रामदयाल बीच में बोला, 'अलीमर्दान से बड़नगरवाले नहीं लड़ रहे हैं, विराटा का दाँगी राजा नहीं लड़ रहा है, दलीपनगर को ही क्या पड़ी है, जो व्यर्थ का वैर बिसावे? उसकी सहायता से यदि आप या कुंजरसिंह राजा सिंहासन पा सकें तो कोई अनुचित बात नहीं।'


रानी ने थोड़ी देर में बहुत थके हुए स्वर में कहा, 'तब कुंजरसिंह के पास न जाकर अलीमर्दान के पास जा। मेरी राखी लेता जा। यदि वह मंदिर तोड़ने के लिए आया हो, तो बिना कोई बातचीत किए तुरंत लौट आना। फिर मुझे सिवा जनार्दन के सिर के और कुछ न चाहिए। उस सिर को घूरे पर फेंककर सती हो जाऊँगी।'

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