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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:१९:
उसी समयपंचनद की छावनी में हकीम आगा हैदर आ गया। आते ही उसने जनार्दन से कहा, 'यहाँ आकर बहुत बुरा किया। क्या राजा को मारने के लिए लाए थे?'
'नहीं, उनकी इच्छा उन्हें यहाँ ले आई। अब वह जा रहे हैं।' 'फिर दलीपनगर?' नहीं, गोलोक।' 'ऐसी जल्दी! उफ!' 'यह सब पीछे सोचिएगा। राजा के पास तुरंत चलिए।'
दोनों जा पहुँचे। लोचनसिंह दवा-दारू में व्यस्त था। उसने पंचनद पर आने के पश्चात् हर्षपूर्वक इस कर्तव्य को स्वीकार कर लिया, और वह इस कार्य में इतना संलग्न था कि उसे इधर-उधर क्या हो रहा है, इसका कुछ भी चेत न था। इतना विश्वास उसे अवश्य था कि राजा का ओषधोपचार सावधानी के साथ हो रहा है। देवीसिंह राजा के पास बैठा उनकी देखभाल कर रहा था। छोटी रानी एक ओर परदे में बैठी हुई थीं।


संकेत में आगा हैदर ने अपने लड़के से राजा की दशा पूछी। उसने सिर हिलाकर निराशासूचक संकेत किया। आगा हैदर ने पास जाकर देखा।

राजा क्षीण स्वर में बोले, 'हकीमजी, कहाँ थे?' काँपते हुए गले से आगा हैदर ने कहा, 'कदमों में।' 'आज सब पीड़ा खत्म होती है हकीमजी।' राजा सिसकते हए बोले।
रोते हुए आगा हैदर ने कहा, 'हुजूर की ऐसी अच्छी तबीयत बहुत दिनों से देखी गई थी। आशा होती है-'
राजा ने हाथ हिलाकर सिर पर रख लिया। 'हकीमजी कालपी गए थे, महाराज। वह अलीमर्दान को किसी गड्ढे में खपाने की चिंता में हैं।' लोचनसिंह ने राजा को शायद प्रसन्न करने के लिए कहा।
आगा हैदर ने हाथ जोड़कर लोचनसिंह को वर्जित किया।
'हकीमजी,' लोचनसिंह ने धीरे से कहा, 'क्षत्रिय न तोरण की मृत्यु से डरता है और न घर की मृत्यु से।'
इतने में एक ओर परदे में बड़ी रानी भी आ बैठीं।
रामदयाल ने छोटी रानी के पास से आकर जनार्दन से जरा जोर से कहा, 'आप सब लोग बाहर हो जाएँ। कक्कोजू दर्शन करना चाहती हैं।'
राजा ने यह सब वार्ता कुछ सुन ली, कुछ समझ ली। टूटे हुए स्वर में बोले, 'तब सब लोग यही समझ रहे हैं कि मैं मरने को हूँ। कुंजरसिंह कहाँ है?'
कुंजरसिंह तुरंत हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया। राजा की आँखों में आँसू आ गए और गला रुंध गया। कुछ कहने को हुए, न कह पाए। कुंजरसिंह की आँखें भी डबडबा आई।


जनार्दन इस समय बहुत सतर्क था, दृष्टि तुली हुई और सारी देह कुछ करने के लिए सधी हुई। वह ऐसा जान पड़ता था, जैसे कि महत्त्वपूर्ण नाटक का सूत्रधार हो। उसने लोचनसिंह की ओर देखते हुए कहा, 'इस समय महाराज को बात करने में जितना कम कष्ट हो, हम अपना उतना ही बड़ा सौभाग्य समझें।'

लोचनसिंह ने कुंजरसिंह के पास जाकर कहा, 'राजकुमार, जरा इधर आइए।' इच्छा-विरुद्ध कुंजरसिंह दूसरी ओर दो-तीन कदम के फासले पर हट गया।
जनार्दन दवात-कलम और कागज लेकर राजा के पास जाकर झक गया। राजा असाधारण चीत्कार के साथ बोले, 'मुझे क्या तुम सबने पागल समझ लिया है?' और तुरंत अचेत हो गए। रामदयाल झपटकर राजा के पास आना चाहता था, लोचनसिंह ने रोक लिया।
कुंजरसिंह ने हकीम से कहा, 'आप देख रहे हैं कि आपकी आँखों के सामने यह क्या हो रहा है?'


'मेरी समझ में कुछ नहीं आता।' हकीमजी ने आँखें मलते हुए कहा। 'यह दुधारा खाँड़ा भी आज किसी लोभ में आ गया है।' लोचनसिंह की ओर इंगित करके कुंजरसिंह ने दबे गले से कहा और दृढ़तापूर्वक अपने पिता के पैताने जाकर खड़ा हो गया।

लोचनसिंह धीरे से बोला, 'महाराज जिसे चाहेंगे, उसे लिख देंगे। किसी को उनसे अपनी मांग-चंग नहीं करनी चाहिए।'
एक क्षण बाद राजा को होश आता देखकर जनार्दन ने जोर से कहा, 'कलम-दवात मंगवाई थी, सो आ गई। देवीसिंह के लिए आदेश हुआ, वह यहाँ उपस्थित हैं।'
'मुझे किसलिए?' एक कोने से देवीसिंह ने पूछा।


जनार्दन ने आग्रह के ऊँचे स्वर में कहा, 'अब आज्ञा हो जावे।'

राजा ने कुछ मुँह ही मुँह में कहा, परंतु सुनाई नहीं पड़ा।
जनार्दन नेमानो कुछ सुना हो। बोला,'बहुत अच्छा महाराज, यमुनाजी की रज और गंगाजल ये हैं।' वह सामग्री पास ही रखी थी।
रामदयाल ने छोटी रानी के परदे के पास से चिल्लाकर कहा, 'हकीमजी, यहाँ जल्दी आइए।'
हकीम राजा को छोड़कर नहीं गया। तब रामदयाल चिल्लाया, 'कुंजरसिंह राजा, आप ही इधर तक चले आओ।'


जैसे किसी ने ढकेल दिया हो, उसी तरह कुंजरसिंह छोटी रानी के परदे के पास पहुँचा। छोटी रानी ने सबके सुनने लायक स्वर में कहा, 'भकुए बने खड़े क्या कर रहे हो? तुम राजा के कवर हो, क्यों अपना हक मिटने देते हो? जाओ,राजा के पास अपना हक लिखवा लो।'

लोचनसिंह बोला, 'राजा जिसे देंगे, वही पावेगा। हक जबरदस्ती नहीं लिखवाया जा सकता।'
कुंजरसिंह राजा के पलंग की ओर बढ़ा। इतने में जनार्दन ने कहा, 'महाराज देवीसिंह का नाम ले रहे हैं। सुन लो चामुंडराय लोचनसिंह, सुन लो हकीमजी, सुन लो कुंजरसिंह राजा, सुन लो कक्कोजू!' और सब चुप रहे।
लोचनसिंह बोला, 'आप झूठ थोड़े ही कह रहे हैं।'


राजा ने वास्तव में देवीसिंह का नाम दो-तीन बार उच्चारण किया था। परंतु क्यों किया था, इस बात को सिवा जनार्दन के और कोई नहीं बतला सकता था।

जनार्दन ने और किसी ओर ध्यान दिए बिना ही खूब चिल्लाकर राजा से कहा, 'तो महाराज देवीसिंह को राज्य देते हैं?'
राजा ने केवल 'देवीसिंह' का नाम लेकर उत्तर दिया और राजा देर तक सिर कंपाते. रहे। होंठों पर कुछ स्पष्ट शब्द हिले, परंतु सुनाई कुछ भी नहीं पड़ा। और लोगों के मन में संदेह जाग्रत हुआ हो या न हुआ हो, परंतु लोचनसिंह के मन में कोई संशय न रहा।


जनार्दन ने राजा के हाथ में कलम पकड़ाकर कहा.'तोलिख दीजिए इस कागज पर देवीसिंह राजा हुए।' राजा का हाथ अशक्त था। किंतु किसी क्रिया के लिए जरा हिल उठा। सबने देखा। जनार्दन ने तुरंत उस हिलते हुए हाथ को अपने हाथ में पकड़कर कागज पर लिखवा लिया-देवीसिंह राजा हुए। उसके नीचे राजा की सही भी करा ली।

जनार्दन ने देवीसिंह को तुरंत इशारे से पास बुला लिया। बोला, 'महाराज अपने हाथ से तिलक भी कर दें।' और गंगाजल से राजा के अंगूठे को भिगोकर अपने हाथ से हाथ थामे हुए जनार्दन ने देवीसिंह का मस्तक अभिषिक्त करा दिया।
लोचनसिंह से कहा, 'तोपें दगवा दो।'


हकीम बोला, 'कालपी खबर पहुंचने में देर न लगेगी। इसी जगह चढ़ाई हो जाएगी।' _ 'होवे।' जनार्दन वेग के साथ बोला, 'थोड़ी देर में संसार-भर जान जाएगा, अभिषेक गुपचुप नहीं होगा, खुल्लमखुल्ला होगा।'

लोचनसिंह बाहर चला गया। रामदयाल चिल्लाया, 'कक्कोजू की मर्जी है कि यह सब जाल है। महाराज कुछ सुन या समझ नहीं सकते। राजा कुंजरसिंह महाराज हो सकते हैं, और किसी का हक नहीं।'
बड़ी रानी ने कहलवाया, 'पहले भलीभाँति जाँच कर ली जाए कि महाराज ने अपने चेत में यह आदेश लिखा है या नहीं। व्यर्थ का बखेड़ा नहीं करना चाहिए।'
बड़ी रानी की ओर हाथ बाँधकर जनार्दन बोला, 'बड़ी कक्कोजू के जानने में आवे कि राज्य कुँवर देवीसिंह को ही दिया गया है।'
इतने में राजा कुछ अधिक कपित हुए! जरा जोर से बोले, 'कुंजरसिंह।' 'मुझे राज्य दे रहे हैं।'


जनार्दन ने कहा, 'कभी नहीं, राजा अब अचेत हैं।' राजा ने फिर अस्थिर कंठ से कहा, 'देवीसिंह।' 'राज्य मुझे दिया है।' देवीसिंह कठोर स्वर में बोला। कुंजरसिंह राजा के पास आ गया। बड़ी रानी ने निवारण करवाया। छोटी रानी ने बढ़ावा दिलवाया। रामदयाल कुंजरसिंह के पास खड़ा हो गया।

'धायँ, धायँ, धायें।' उधर तोपों का शब्द हुआ। 'महाराज देवीसिंह की जय!' तुमुल स्वर में कोठी के बाहर सिपाही चिल्लाए।
इतने में राजा ने क्षीण स्वर में 'कुंजरसिंह! फिर कहा, कुंजरसिंह और रामदयाल ने सुना शायद जनार्दन ने भी।
कुंजरसिंह बोला, 'अब भी छल और धूर्तता करते ही चले जाओगे? मेरा नाम ले रहे हैं।'
'नहीं।' देवीसिंह ने कहा। 'नहीं।' जनार्दन बोला।


आगा हैदर चुपचाप एक कोने में खड़ा था।

छोटी रानी परदे से चिल्ला उठी, 'कायर! डरपोक! क्या राज्य ऐसे लिया जाता है?' परदा जोर से हिला, मानो रानी सबके सामने किसी भयानक वेश में आनेवाली हैं। रामदयाल लपककर दरवाजे पर जा डटा।
कुंजरसिंह ने तलवार खींच ली। इतने में लोचनसिंह आ गया। बोला, 'यह क्या है कुंजरसिंह राजा?'

'ये लोग मुझे अब अपने राज्य से वंचित करना चाहते हैं, दाऊजू। कक्काजू ने अभी नाम लेकर मुझे राज्य दिया है।'
'तलवार म्यान में राजा।' लोचनसिंह ने कुंजरसिंह के पास जाकर डपटकर कहा, 'जो कुछ महाराज ने किया है, वह सब मेरे देखते-सुनते हुआ है।'
'धोखा है।' रामदयाल चिल्लाकर छोटी रानी के दरवाजे पर डटे हुए बोला।
राजा ऊर्ध्वश्वास लेने लगे। हकीम गरजकर बोला, 'महाराज को शांति के साथ परमधाम जाने दीजिए। अब एक-दो क्षण के और हैं, पीछे जिसे जो दिखाई दे, कर लेना।'
राजा की अवस्था ने उपस्थित लोगों के बढ़ते हुए क्रोध पर छाप-सी लगा दी। .. राजा को भूमि पर शय्या दे दी गई। मुँह में गंगाजल डाल दिया गया। तोपों और
जयजयकार के नाद में राजा नायकसिंह की संसार-यात्रा समाप्त हो गई।


बहुत सपाटे के साथ पंचनद से दलीपनगर लौट आए, केवल कुंजरसिंह पीछे रह गया। राज्य-भर ने पुरानी रीति के अनुसार सूतक मनाया, बाल मुड़वाए, परंतु वास्तव में कोई दुखी था कि नहीं, यह बतलाना कठिन है।

असफल प्रयत्न के पीछे पड़ना बड़ी रानी की प्रकृति में न था। एक बार मनोरथ विफल होते ही पुनः प्रयत्न करना उनके मानसिक संगठन के बाहर की बात थी। छोटी रानी को देवीसिंह का राजतिलक बहुत बुरा लगा। वह सती नहीं हुई। यह देखकर और शायद देवीसिंह के मनाने पर बड़ी रानी भी सती नहीं हुई।


जनार्दन प्रधानमंत्री घोषित कर दिया गया और लोचनसिंह प्रधान सेनापति। इसी बीच में दिल्ली से जो समाचार अलीमर्दान को मिला, उससे उसकी बहुत-सी चिंताएँ दूर हो गई। उसने दलीपनगर पर आक्रमण करना निश्चित कर लिया। यदि अलीमर्दान को वह समाचार कुछ दिन पहले मिल गया होता तो शायद वह पंचनद पर ही युद्ध ठानने की चेष्टा करता। परंतु इसकी संभावना थी बहुत कम, क्योंकि बहुत दूर न होते हुए कालपी से पंचनद पर तोपों का घसीट ले जाना काफी समय ले लेता।

अब कालपी में दलीपनगर के ऊपर चढ़ाई करने के लिए तैयारी होने लगी। दलीपनगर में इनकी खबरें आने लगीं।
थोड़े दिनों बाद यह सेना कालपी से चल पड़ी। उधर दलीपनगर में भी खूब तत्परता के साथ जनार्दन और लोचनसिंह द्वारा सैन्य-संगठन होने लगा। प्रजा में विश्वास का संचार हुआ। देवीसिंह इस तरह राजसिंहासन पर बैठने लगा, जैसे दरिद्रता या सामाजिक स्थिति की लघुता ने कभी उसका संपर्क ही न किया हो।

उसी समय समाचार मिला कि कुंजरसिंह ने कुछ सरदारों को साथ लेकर सिंध तटस्थ सिंहगढ़ पर कब्जा करके विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया है। जनार्दन ने यह भी सुना कि छोटी रानी कुंजरसिंह को उभाड़ने और द्रव्य आदि से सहायता करने में कोई संकोच नहीं कर रही हैं। इस पर भी नए राजा ने उनके साथ कोई बुरा बरताव करने का लक्षण नहीं दिखाया।


परंतु जनार्दन से सहन नहीं हुआ. लाकर रामदयाल से कहा, 'तुम्हारी सब चालें हमें विदित हैं। कुंजरसिंह राजा अपने किए का फल पाएंगे। परंतु तुम उनसे अपना कोई संबंध मत रखो, नहीं तो किसी दिन सिर से हाथ धो बैठोगे।'

'मैंने क्या किया है पंडितजी?' रामदयाल ने पूछा। 'तुमने कुंजरसिंह के पास रुपया-पैसा भेजा है। तुम यहाँ के भेद कुंजरसिंह के पास भेजते रहते हो।'
'मैंने यह कुछ भी नहीं किया।' 'छोटी रानी और तुम यह सब नहीं कर रहे हो?' 'वह करती होंगी, महारानी हैं। मैं तो नौकर-चाकर हूँ।' 'खाल खिंचवाकर भुस भरवा दिया जाएगा, जो किसी शेखी में भूले हो।' "किसकी खाल? रानी की?' . 'मैंने यह तो नहीं कहा, परंतु यदि रानी पृथ्वी को सिर पर उठाएँगी, तो क्या वह न्याय से बच जाएँगी? धैर्य की सीमा समाप्त हो चुकी है।'


'मेरा कोई अपराध नहीं।' कहकर रामदयाल चला गया।

जनार्दन दूसरे कामों में लग गया और इस वार्तालाप को भूल गया। खबर लगी कि अलीमर्दान सेना लेकर राज्य की सीमा के पास से होता हआ बढ़ता आरहा है परंतु सीमा के भीतर प्रवेश नहीं किया, और न राज्य की किसी प्रजा को सताया ही है। शायद कहीं और जा रहा हो। कम से कम अपनी तरफ से कारण न उपस्थित किया जाए। ऐसी दशा में उससे लड़ने के लिए सेना भेजना राजा देवीसिंह ने उचित नहीं समझा, परंतु अपने यहाँ चौकसी रखी। कुंजरसिंह को सिंहगढ़ से निकाल भगाने के लिए कुछ सेना उस ओर रवाना कर दी। कुंजरसिंह अपनी छोटी-सी सेना के साथ सिंहगढ़ में घेर लिया गया। सिंधु नदी साँप की तरह कतराती हुई इस किले के नीचे से बहती चली गई है। नदी के उस ओर भयानक जंगल था। किले में खाद्य-सामग्री थोड़े दिनों के लिए थी। घेरा प्रचंडता और निष्ठुरता के साथ पड़ा। किले से बाहर निकलकर लड़ना आत्मघात से भी अधिक बुरा था। किले की दीवारों पर तोपें निरंतर गोले फेंकने लगीं। बचने का कोई उपाय न देखकर जो कुछ उसे अनिवार्य दिखाई पड़ा, वही निश्चय किया, अर्थात् लड़ते-लड़ते मर जाना।

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