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ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी

विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

: १८:
राजा नायकसिंह अपने दल के साथ एक दिन पंचनद पहुँच गए। पंचनद, जिसे पचनदा भी कहते हैं, बुंदेलखंड का एक विशेष स्थान है। यमुना, चंबल, सिंधु, पहूज और कुमारी, ये पाँच नदियाँ उस जगह आकर मिली हैं। स्थान की विस्तृत भयानकता उसकी विशाल सुंदरता से होड़ लगाती है। बालू, पानी और हरियाली का यह संगम वैभव, भय और सौंदर्य के विचित्र मिश्रण की रचना करता है।


इस संगम के करीब एक गढ़ी थी। राजा उसी में जाकर ठहरे। संध्या के पहले ही डेरे पड़ गए। आज तबीयत कुछ ज्यादा खराब थी, परंतु बातचीत करने का चाव अधिक था। कुंजरसिंह को बुलाकर पूछा, 'लोचनसिंह कहाँ है?' और लोचनसिंह के उपस्थित होने पर प्रश्न किया, 'कुंजरसिंह कहाँ है?'

जितने प्रमुख लोग गढ़ी में राजा के साथ आए थे, सब जानते थे कि राजा ने यहाँ आने में गलती की है। मार्ग से भटकी हुई इस दूर की गढ़ी में पहुँचकर किसी को भी हर्ष नहीं हुआ। केवल लोचनसिंह ने ठंडा पानी पीकर, घोड़े की पीठ ठोकते-ठोकते सोचा कि आज रात-भर अच्छी तरह सोऊँगा। कालपी पंचनद से दूर नहीं थी। कालपी के फौजदार से किसी तत्काल संकट की आशंका न थी। उन दिनों मिलाप करते-करते छुरी चल पड़ती थी और छुरी चलते-चलते मिलाप हो जाता था। पंचनद दलीपनगर की सीमा के भीतर था। हकीम द्वारा फौजदार की शांति-वृत्ति का पता लग चुका था और दलीपनगर की सेना भी निर्बल न थी। जनार्दन मेल और लड़ाई दोनों के लिए तैयार था। कुछ लोग सोचते थे कि दलीपनगर छोड़ आने में राज्य की हत्या का-सा काम किया, परंतु उस परिस्थिति में राजा की आज्ञा का उल्लंघन करना असंभव था। इसलिए ऐसे लोग पछतावा तो प्रकट न करते थे; परंतु राजा के लिए चिंतित दिखाई पड़ते थे। ऐसे लोगों में केवल जनार्दन कम से कम ऊपर से चिंतित नहीं दिखाई पड़ता था।
सभी अगुओं के मन में एक बात ही थी-राजा की समाप्ति कब शीघ्रतापूर्वक हो और कब राजसत्ता किसी अच्छे आदमी के हाथ में सुव्यवस्था का संग्रह कर दे। केवल देवीसिंह राजा के निकटवर्तियों में ऐसा था, जो भगवान् से राजा के स्वास्थ्य-लाभ के लिए दिन में एक-आध बार प्रार्थना कर लेता था।


षड्यंत्र खूब सरगरमी पर थे। बिना किसी लाज-संकोच के राजा के पलंग से चार हाथ के ही फासले पर रचित बड्यंत्रों की काना-फूसी और षड्यंत्र-रचना की बहस होने

लगी।


लोगों को यह दिखाई पड़ रहा था कि सैनिकों का विश्वास लोचनसिंह के बल-विक्रम पर और जनार्दन की दक्षता तथा कुशलता पर है। जनार्दन अपनी आर्थिक समर्थता और व्यवहार-पटुता के कारण पंचनद पर सेना के विश्वास का स्तंभ हो गया। खुल्लम-खुल्ला कोईरानी उसके खिलाफ कुछ नहीं कह रही थी। लोचनसिंह के पास न कोई षड्यंत्र था और न कोईषड्यंत्रकारी दल। षड्यंत्र की सष्टि के लायक कुंजरसिंह में तो यथेष्ट.मानसिक चपलता थी और न किसी षड्यंत्र के प्रबल नायकत्व के लिए पूरी नैतिकहीनता। भीतर महलों में षड्यंत्र बनते और बिगड़ते थे। सुलझाई हुई उलझनें और उलझती जाती थीं। अच्छी-अच्छी योजनाएँ भी तैयार हो जाती थीं, परंतु उनके लिए योग्य संचालक की अटक थी। 


दो दिन ठहरने के बाद बड़ी रानी ने कुंजरसिंह को बुलाकर प्रस्ताव किया, दलीपनगर तुरंत लौट चलो। यह प्रस्ताव कथन में जितना सहज था, व्यवहार में उतना नहीं। कुंजर ने कहा, 'यह असंभव है। काकाजू की मर्जी नहीं है। यदि हमने सैनिकों से कहा और उन्होंने न माना, तो तिल धरने को भी स्थान न रहेगा।'
'लोचनसिंह से कहो कि मेरी आज्ञा है। राजा को इस समय भले-बुरे का चेत ही नहीं।"


'मैंने लोचनसिंह का रुख भी परख लिया है। उनके जी में किसी ने यह वात बिठला दी है कि महाराज इस स्थान को कदापि न छोड़ेंगे, यहीं स्वस्थ हो जाएंगे।'

'किसने?'
हकीमजी ने।' 'आगा हैदर के लड़के ने?'
हाँ, महाराज।' 'लोचनसिंह को बुला दो।' एक क्षण सोचकर फिर रानी बोलीं, 'मत बुलाओ उस लट्ठको। वह गँवाररक्त, तलवार और सिर के सिवा हमारी सहायता की कोई और बात न कर सकेगा। कुंजरसिंह!'
'आज्ञा।' 'समय आ गया है।' 'यह तो मैं भी देख रहा हूँ।' 'तुम अंधे हो और अपाहिज भी।'
कुंजरसिंह कान तक लाल हो गया, परंतु चुप रहा। रानी बोलीं, 'तुम्हारे साथ कोई नहीं दिखलाई देता और मेरे पक्ष का भी इस जंगल में कोई नहीं। मुझे इसी समय दलीपनगर पहुंचा सकते हो?'
'प्रयत्न करता हूँ।' उत्तर मिला।


कुंजरसिंह वहाँ से जाने को ही हुआ था कि रामदयाल रोती सूरत बनाए आया, बोला, 'कक्कोजू-'

'हाँ, बोल, कह, क्यों रुक गया?' रानी ने कुछ कठोरता के साथ पूछा। 'कक्कोजू।' रामदयाल ने कहा, 'जमनाजी से रज और गंगाजल मंगाने का हुकुम हुआ है। चलना होवे।'
'क्या दशा बहुत बिगड़ गई है?' रानी ने कंपित स्वर में पूछा। 'हाँ महाराज।' कहकर रामदयाल छोटी रानी के पास चला गया।


उसी समय जनार्दन वहाँ आया। रानी आड़ में हो गई। उत्तर देनेवाली दासी, जिसे जवाब कहते हैं, रानी के कहलवाने से बोली, 'कहिए, महाराज का हाल अब कैसा है?'

'पहले से बहुत अच्छा है।' जनार्दन ने उत्तर दिया, 'उन्हें खूब चेत है। परंतु अंत समय दूर नहीं मालूम होता। दीपशिखा की अंतिम लौ की तरह वह जगमगाहट है। बार-बार देवीसिंह का नाम ले रहे हैं। वह महाराज के पास ही बैठे हैं। दवात-कलम मैंगाई थी।'
कुंजरसिंह ऐसे हिला, जैसे किसी ने यकायक झकझोर डाला हो। बोला, 'दवात-कलम किसलिए मैंगाई थी?'
स्पष्टता के साथ जनार्दन ने जवाब दिया, 'कदाचित् अपना अंतिम आदेश अंकित करना चाहते हैं। दवात-कलम पहुँच गई है, कागज पर कुछ लिख भी चुके हों।'
'छोटी महारानी कहाँ हैं?' रानी ने तुरंत पुछवाया।
उत्तर दिया, 'उन्हें भी बुलाया गया है। आप भी यथासंभव शीघ्र चलें।' कुंजरसिंह सन्न होकर बैठ गया। जनार्दन चला गया।

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