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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

:१६:
टेढ़े-मेढ़े, पथरीले-नुकीले और वन्य, पहाड़ों ओछे-संकरे मार्गों में होकर नरपतिसिंह विराटा पहुँच गया।


विराटा पालर से उत्तर-पूर्व के कोने में है। बेतवा के तट और टापू पर, घोर वन के आँगन में छोटी, संपन्न बस्ती थी। राजा दाँगी था। नाम सबदलसिंह। नदी की कगार पर उसका गढ़ था, जो दूर से वन के सघन और दीर्घकाय वृक्षों के कारण कई ओर से दिखाई भी न पड़ता था।


गढ़ के ठीक सामने पूर्व की ओर नदी के बीचोंबीच एक टापू पर एक छोटा मंदिर छोटी-सी दृढ़ गढ़ी के भीतर था। इस मंदिर में उस समय दुर्गा की मूर्ति थी। जीर्णोद्धार होने के बाद अब उसमें शंकर की मूर्ति स्थापित है। दक्षिण की ओर यह टापूएक ऊँची पहाड़ी में समाप्त हो गया है। कहीं-कहीं पहाड़ी दुर्गम है। जिस ओर यह लंबी-चौड़ी चट्टानों में ढल गई है, उस ओर विस्तृत नीलिमामय जलराशि है। नदी की धार टापूके दोनों ओर बहती है, परंतु टापू से पूर्व की ओर धार बड़ी और चौड़ी है। इस पहाड़ी के नीचे एक बड़ा भारी दह है।


उत्तर की ओर टाप करीब पाँच मील लंबी समतल, उपजाऊ भूमि में समाप्त हुआ है। सबदलसिंह की छोटी-सी बैठक उस मैदान में थी। और बैठक के चारों ओर एक छोटा-सा उद्यान। मंदिर में कभी कोई साधु-वैरागी आकर कुछ दिनों के लिए ठहर जाता था; वैसे खाली पड़ा रहता था। पूजा का अवश्य प्रबंध था, जैसा पुराने विराटा के बिलकुल उजड़ जाने पर भी इस एक्रांत मंदिर की पूजार्चा का आज भी कुछ-न-कुछ प्रबंध है।


विराटा में भी कुमुद के दुर्गा होने की बात विख्यात थी। राजा दाँगी था, इसलिए कुमुद के देवत्व को यहाँ और भी अधिक बड़प्पन मिला। नरपतिसिंह थोड़े ही दिनों गाँव की बस्ती में रहा। नदी के बीच में टापू की पहाड़ी पर स्थित मंदिर उसे अपनी रक्षा और निधि के बचाव के लिए बहुत उपयुक्त जान पड़ा। कुमुद भी आवभगत और पूजा की बहुलता के मारे इतनी थक गई थी कि टोरिया के मंदिर के एकांत को उसने कम-से-कम कुछ दिनों के लिए बहुत हितकर समझा। नरपति के जाने के पहले ही कुमुद इस मंदिर में चली आई थी।

पालर से लौटकर गाँव में पहुंचने पर नरपतिसिंह ने गोमती से कहा, 'तुम अब यहीं कहीं अपने रहने का बंदोबस्त करो। मैं देवी के पास मंदिर में जाऊंगा।'
'मैं भी वहीं चलेंगी।' 'बड़ा भयानक स्थान है।' 'भयानक स्थानों से नहीं डरती। देवी की सेवा में मेरा संपूर्ण जीवन सुभीते के साथ बीत जाएगा।'
'परंतु यदि देवी ने पसंद न किया तो?'
गोमती ने विश्वास के साथ उत्तर दिया, 'अवश्य करेंगी। देवता के पास एक पुजारिन सदा रहेगी। आप जब कभी टाप छोड़कर बस्ती में राजा के पास आवेंगे, देवीजी को अकेला न रहना पड़ेगा। आजकल किसी को अकेला न रहना चाहिए।'
नरपतिसिंह ने जिद न की। जिस समय गोमती मंदिर में पहँची, कुमुद बेतवा के पूर्व तट के उस ओर वन के जंगली पशुओं की आवाजें सन रही थी। संध्या हो चुकी थी। पश्चिम दिशा का क्षितिज सुनहले रंग से भर चुका था और पूर्व की ओर से अंधकार के पल्लड़ के पल्लड़ नदी की स्वर्ण रेखा पर मानो आवरण डालनेवाले थे। मंदिर के चारों ओर नदी की प्रशस्त धाराएँ अंधकार और वन्य-पशुओं के चीत्कारों से कुमुद की एकांतता को अलग-सा कर रही थीं। पिता को देखते ही एकांतता का गांभीर्य चला गया। हर्ष की एक सुनहली रेखा से आँखें जग गई और गोमती को देखते ही आनंद की पुलकावलि का रेखाजाल विकसित मुख पर नाचने-सा लगा।


बिना किसी प्रतिबंध के गोमती को गले लगाकर बोली, 'गोमती, तुम भी आ गईं! अच्छा किया। भूली नहीं। एक से दो हुए। अच्छी तरह हो!जब पालर चलेंगे, साथ ही

चलेंगे।'
यह मिलाप नरपतिसिंह को भी बुरा नहीं लगा। देवी को-अपनी कन्या को-एक घड़ी के लिए स्वाभाविक आनंद में लहराते देखकर वह बूढ़ा भी प्रसन्न हो गया। उसने सोचा-ऐसा मिलाप बहुधा और सबके सामने न होना चाहिए।


गोमती भी उमड़े सौंदर्य की युवती थी। परंतु किसी गुप्त चिंता और प्रकट थकावट ने उसे मेघाच्छन्न चाँदनी की तरह बना रखा था। आलिंगन से छुटकर गोमती ने सजल, कृतज्ञ नेत्रों से एक क्षण उन महिमावान् स्थिर नेत्रों की ओर देखा। बोली, 'आपकी शरण में आ गई हैं, अब कोई कष्ट न रहेगा।' और रोने लगी।

नरपतिसिंह अपना सामान यथास्थान रखने में जुट गया। कुमुद ने गोमती का हाथ पकड़कर कहा, 'आप-आप मत कहो, तुम कहो।'
'देवी से?'


'देवी मंदिर में हैं। मैं तो पुजारिन-मात्र हूँ।' 'नहीं, आप ही कहूँगी। सब लोग आप कहते हैं।' 'नहीं, मुझे वही प्यारा है। आप-आप सुनते-सुनते थक गई हूँ। दूसरे शब्द में शांति और सुख है।'


'जैसा आदेश हो।' 'फिर वही! अच्छा देखा जाएगा। परंतु मैं तुम्हारी बहिन हूँ, यह संबंध मानने का वचन दो।'

'बड़ी बहिन?' 'यही सही।' 'सो तो है ही।'
कुमुद ने कहा, 'तुम बहुत थक गई हो। सारी देह धूल और धूप में धूमरी पड़ गई है। नहा-धोकर भोजन करो।'
इतने में नरपतिसिंह का ध्यान आकृष्ट हुआ। उसे सिर के बाल बिखेरे पास आता देखकर कुमुद की मुद्रा धीर हो गई।

नरपतिसिंह बोला, 'गोमती, तुम इस कोठरी में अपना डेरा डाल लो। तुम्हें मैं कुछ वस्त्र और दूंगा। भोजन करके आराम से सो जाओ।'

कुमुद ने अपने सहज मीठे स्वर में कहा, 'हम और वह एक ही स्थान पर अर्थात् एक ही कोठरी में सोवेंगी। मैंने उसे अपनी छोटी बहिन बना लिया है?'

'देवी और गोमती बहिन नहीं हो सकती।' नरपतिसिंह ने जरा अधिकार के स्वर में कहा। फिर नरम होकर बोला, 'अच्छा, देवी के मन में जैसा आवे, करें। देवी जिस पर कृपा करें, कर सकती हैं।'
गोमती को संबोधन करते हुए उसने कहा, 'गोमती बेटी, यह स्मरण रखना कि हमारी-तुम्हारी देह मानवों की है और कुमुद कुमारी दुर्गा का अवतार है।'
'अवश्य।' गोमती ने उत्तर दिया।


भोजन के उपरांत नरपतिसिंह मंदिर के एक बड़े कोठे में जा लेटा और तुंरत सो गया। दूसरी ओर की एक कोठरी में कुमुद और गोमती जा लेटीं।

न मालूम आज कुमुद गोमती को क्यों गले लगा लेने की बार-बार अभिलाषा कर रही थी। आज की संध्या के पहले उसने कभी किसी को गले नहीं लगाया था। पीठ पर हाथ फेरा था, सिर पर कर-स्थापन किया था, वरदान और आशीर्वाद दिए थे। परंतु दो स्त्रियाँ घंटों तक जो बे-सिर-पैर की निरर्थक बातें करती हैं और फिर भी नहीं अघाती, इसका उसके जीवन में कभी अवसर न आया था।


गोमती थकी हुई थी, अंग-अंग चूर हो रहे थे, परंतु मन बहुत हलका था और आँखों में नींद न थी। जीभ वार्तालाप के लिए लौंक-सी रही थी। परस्पर की दूरी ने मुहर-सी लगा रखी थी। कुमुद इस अवस्था को अवगत कर रही थी। एक स्त्री-हृदय को दूसरे स्त्री-हृदय की मूक भाषा समझने में देर न लगी।

जब दोनों को चुपचाप लेटे-लेटे आधी घड़ी बीत गई, कुमुद ने कहा, 'गोमती!' उसने उत्तर दिया, 'मैं अभी सोई नहीं हूँ। आप भी जाग रही हैं?' 'फिर वही आप!' जी के उमड़े हुए किसी अज्ञात, अगम्य वेग को रोकते हुए हँसकर कुमुद बोली, 'भाई, ऐसे काम नहीं चलेगा। इन दूर की बातों से अंतर न बढ़ाओ। क्या बहिन कहने से तुम्हारे सिर कोई विपद् आती है?'


कुमुद की हँसी में हलकी पैंजनी की क्षीण खनक थी, परंतु गोमती जरा विचलित-कंपित स्वर में बाली, 'मैं ठाकुर की बेटी हूँ, इसलिए नहीं डरती; वैसे देवी के मंदिर में और देवी के इतने निकट रहने पर किसी मनुष्य देहधारी में साहस नहीं हो सकता!

'तुम्हारी जैसी तो मेरी भी देह है, गोमती! क्या तुम मुझसे डरती हो?' 'देवी, मैं किसी से नहीं डरती। परंतु सिंहवाहिनी दुर्गा का आदर किस तरह हृदय से दूर किया जा सकता है। लोग कहते हैं, आप रात को सिंह पर सवार होकर संसार-भर का भ्रमण और दीन-दखियों का कष्ट निवारण करती हैं।'


'गोमती, लोग क्या-क्या कहते हैं?' अलसाए हुए कंठ से कुमुद ने प्रश्न किया। गोमती ने उत्तर दिया, 'लोग कहते और विश्वास करते हैं। और यह बात सच भी है कि दुर्गा रानी किसी प्राणी के कष्ट को रात्रि के अवसान पर उतनी ही मात्रा में नहीं रहने देतीं। प्रातःकाल होते-होते कलियों को चिटक, फूलों को महक, हरियाली दमक, अनाथों को सनाथता, पीड़ितों को स्वास्थ्य और दलितों को आश्रय देती हैं-जैसा आज मुझे मिला।'

'गोमती, तुम पढ़ी-लिखी हो।' कुमुद ने जरा हँसकर कहा, 'इसलिए कविता-सी कह गईं, परंतु क्या यह नहीं जानती कि देवता का वास मूर्ति में है, मैं तो दुर्गा की केवल पुजारिन हूँ?'


वह बोली, 'मेरा भाग उदय होना चाहता है, इसलिए आप इतनी दयालु होकर इस तरह मुझसे बातें कर रही हैं। विनती यह है कि यह कृपा कभी कम न हो।' - एक क्षण सोचकर कुमुद ने कहा, 'पालर में उस दिन की लड़ाई मैं रोकना चाहती थी, परंतु नरोक सकी। दुर्गाजी की यही इच्छारही होगी। चाहते हुए भी मैं उस रक्त-पात को न रोक सकी और यहाँ आना पड़ा। इस पर भी गोमती, तुम वास्तविक दुर्गा को भुलाकर मुझे दुर्गा कहती हो? मैं तो केवल होम आदि करनेवाली हूँ और यदि तुम मुझे ऐसा ही मानती हो, तो मुझे बहिन कहलवाने में ही आनंद है।'

गोमती ने कहा, 'यदि ऐसा है, तो केवल अकेले में बहिन कह सकूँगी। सबके सामने कहने में मुझे भय लगेगा।'
'उस दिन युद्ध में क्या हुआ था?' 'दुर्गा ने जो चाहा, सो हुआ। अंतर्यामिनी होकर भी आप यह प्रश्न करती हैं, यह केवल आपकी महत्ता है।'
'फिर भी तुम्हारे मुँह से सुनना चाहती हूँ।'
गोमती ने जितना वृत्तांत सुन रखा था, सुनाया। अपने विवाह से संबंध रखनेवाली घटना नहीं कही।
कुमुद ने पूछा 'उस दिन तुम्हारी बारात आ रही थी, टीका कुशलपूर्वक हो गया था या नहीं?'
गोमती ने कोई उत्तर नहीं दिया। एक आह भर ली।
कुमुद ने कहा, 'उधर के समाचार मुझे नहीं मिले। पूजा-अर्चा में इतनी संलग्न रही कि पूछ नहीं पाया।'
रुद्ध स्वर में गोमती ने कहा, 'आपसे कोई बात छिपी थोड़े ही रह सकती है। मैं क्या बतलाऊँ।'
कुमुद ने सहानुभूति के साथ कहा, 'तुम्हारे ही मुँह से सुनूँगी। सच मानो, मुझे नहीं मालूम।'

कुमुद ने उस अंधेरी कोठरी में यह नहीं देखा कि गोमती के कानों तक आँसू बह आए थे। प्रयत्न करके अपने को सँभालकर गोमती ने उत्तर दिया, 'मेरा भाग्य खोटा है, इसमें दुर्गा के आशीर्वाद को क्यों दोष दूँ?' अपनी बारात के दूल्हा से संबंध रखनेवाली शेष रण-कथा भी सुना दी। अंत में बोली, 'घायल राजा पालकी में पड़े हुए थे। वह वंदनवारों के सामने ही रुक गए। मेरी ओर देखते ही उनके घाव पुलकित हो उठे। सह न सके। थम न सके, जैसे तलवार टूटकर दो टूक हो जाती है, उसी समय धराशायी हो गए! मैं पास भी न जा सकी।'

'फिर क्या हुआ?' कुमुद ने सहानुभूतिमयी आतुरता के साथ पूछा, 'फिर क्या हुआ गोमती?'

'एक निठठाकर पास आकर बुरी-भली बातें कहने लगा। किसी ने उसे लोचनसिंह के नाम से संबोधन किया था।' गोमती ने कहा।

'लोचनसिंह!' कुमुद ने कुछ सोचकर कहा, 'यह नाम मुझे भी मालूम है। उस दिनकी लड़ाई से इस नाम का कुछ संबंध है। कहे जाओ बहिन, आगे क्या हुआ?'

गोमती कहने लगी, वह पत्थर का मनुष्य लोचनसिंह उन्हें ठुकरा देना चाहता था। मेरे मन में आया कि खड्ग लेकर उसे ललकारूँ और सिर काटकर फेंक,। इतने में घोड़े पर बैठे राजकुमार वहाँ आ गए।'

'राजकुमार!' जरा चकित होकर कुमुद बोली, 'अच्छा फिर?'
गोमती ने उत्तर दिया, राजकुमार आ गए। उन्होंने धीरे से उनके घायल शरीर को अपने घोड़े पर कस लिया और अपने डेरे पर ले गए। उनका नाम भूल गई हूँ।'
'नाम कुंजरसिंह है। कुमुद ने कहा, फिर तुरंत जरा उपेक्षा के साथ बोली, 'कुछ भी नाम सही, फिर वे सब कहाँ गए?' .


'लोचनसिंह ने अपना घोड़ा आपके मकान के सामने रोक लिया।' 'मेरे घर के सामने?' 'हाँ, और काकाजू को पुकारा।' 'क्यों? अच्छा फिर?' 'वह पूजा करना चाहता था, परंतु राजकुमार ने कहां-'आओ, मैं नहीं ठहरूँगा।' वह दुष्ट उन्हें अटकाए रखना चाहता था। फिर काकाजू के नाम से पुकार लगाई, कोई नहीं बोला। पड़ोस के पंडितजी ने कहा-'सब लोग दोपहर को ही कहीं चले गए। उसी समय मुझे भी मालूम हुआ कि काकाजू ने घर छोड़ दिया है।'

कुमुद ने जरा-सा खाँसा, एक क्षण बाद पूछा, 'फिर वे सब लोग पालर में ही बने रहे या उसी रात चले गए?'

गोमती ने उत्तर दिया, 'पंडितजी के जवाब देने पर राजकुमार घोड़े की लगाम हाथ में थामे वहीं थोड़ी देर खड़े रहे, परंतु पंडितजी घर से बाहर न निकले। डर गए थे। वह पाषाण-हृदय लोचनसिंह तब राजकुमार को वहाँ से जल्दी-जल्दी लिवाले गया। सवेरे सुना, राजा अपने दल के साथ दलीपनगर चले गए।'

कई क्षण बाद कुमुद ने पूछा, 'दूल्हा का कुशल-समाचार मिल गया था?'
जरा संकोच के साथ गोमती ने कहा, 'दूसरे दिन खबर लगी थी कि राजकुमार, जिसका नाम आपने कुंजरसिंह बतलाया है, रात-भर मरहमपट्टी करते और दवा देते रहे। इससे आगे और कुछ नहीं सुना। आप तो राजकुमार को जानती होंगी।'


'मैंने उसका वह नाम यों ही सुन लिया था। कुमुद बोली, 'अब सो जाओ, बहुत थकी हुई हो।'

'अभी तो नींद नहीं आ रही है, सो जाऊँगी। आप सोएँ।' 'मैं भी अभी उनींदी हुई हैं। पालर का और क्या समाचार है?' 'गाँव सुनसान हो गया है। केवल चलने-फिरने से अशक्त लोग और थोड़े से किसान वहाँ रह गए हैं। मुसलमानों की चढ़ाई होनेवाली है। सुनते हैं, वे लोग देश को उजाड़ देंगे। कुछ लोग कहते हैं, वे मंदिर का अपमान करने की भी चेष्टा करेंगे।'


क्षुब्ध स्वर में कुमुद ने कहा, मानो कई तार एक साथ झंकार मार गए हों, 'क्या सब क्षत्रिय उस समय पालर की झील या बेतवा की धार में डूबकर प्राण बचा ले जाएँगे?. क्या बड़नगर और दलीपनगर के हिंदू उस समय सोते ही रहेंगे?'

गोमती जरा भयभीत हो गई, पर एक क्षण बाद दढ़ता के साथ बोली, 'कछ लोगों ने वहाँ जाकर फरियाद भी की थी और सुनते हैं, दलीपनगर के राजा राजधानी छोड़कर पंचनद की ओर चले गए हैं।'

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