ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
पालर में और आस-पास भी खबर फैली हुई थी कि घोर लूट-मार और मार-काट होनेवाली है। उत्तरी भारतवर्ष के: यह समय बड़े सकंट का था। उपद्रवों के मारे नगरों और राजधानियों में खलबली मची रहती थी। दिल्ली डाँवाँडोल हो चुकी थी। उसके सहायक और शत्रु अपने-अपने राज्य स्थापित कर चुके थे। परंतु ईर्ष्या और शत्रुता बढ़ने के भय से अपनी पूर्ण स्वतंत्रता बहुत थोड़े राजा या नवाब घोषित कर रहे थे। बहुत से स्वाधीन हो गए थे, किंतु नाममात्र के लिए दिल्ली की अधीनता प्रकट करते रहते थे। इनमें जो प्रबल थे वे चौकस थे, निर्भय थे और उनकी प्रजा को बहुत खटका नहीं था, किंतु ऐसे थोड़े थे जो छोटे या निर्बल थे, वे किसी प्रबल पड़ोसी या दूर के शक्तिशाली तूफानी जननायक की ओर निहारते रहते थे।
एक आग-सी लगी हुई थी। उसकी लौ में बहुत से जल-भुन रहे थे, अनेक झुलस रहे थे और उसकी आँच से तो कोई भी नहीं बच रहा था।
बड़नगर के राजा के लिए भी कम परेशानियों न थीं। पालर के निकट किसी होनेवाले तूफान की खबर पाकर कुछ प्रबंध करने का संकल्प किया कि दूसरी ओर बड़े झंझावातों की दुश्चिता में फंस जाना पड़ा। पालर के निकटवर्ती ग्रामों की रक्षा का कोई प्रबंधन किया जा सका। ऐसी अवस्था में साधारण तौर पर जैसे प्रजा को अपने भाग्य के भरोसे छोड़ दिया जाता था, छोड़ देना पड़ा।
पालर के और पड़ोस के निकटवर्ती ग्रामीणों ने इस बात को समझ लिया। जंगलों और पहाड़ों की भयंकर गोद में छिपे हुए छोटे-छोटे गढ़पतियों की शरण के सिवा और कोई आसरा न था। कोई कहीं और कोई कहीं चला गया। रह गए अपने घरों में केवल दीन-हीन किसान जो हल-खेती छोड़कर कहीं न जा सकते थे। उन्हें पेट के लिए, राजा के लगान के लिए, लुटेरों की पिपास के लिए खेतों की रखवाली करनी थी। आशा तो न थी कि चैत-वैशाख तक खेती बची रहेगी। यदि कहीं से घुड़सवार सेना आ गई तो खेतों में अन्न का एक दाना और भूसे का एक तिनका भी न बचेगा। परंतु जहाँ आशा नहीं होती, वहाँ निराशा ईश्वर के पैर पकड़वाती है। यदि बच गए, तो कृतज्ञ हृदय ने एक आँसू डाल दिया और बह गए तो भाग्य तो कोसने के लिए कहीं गया ही नहीं। जिस समय बड़े-बड़े राजा और नवाब अपनी विस्तृत भूमि और दीर्घ संपत्ति के लिए रोज-रोज खैर मनाते थे, अपने अथवा पराए हाथों अपने मुकुट की रक्षा में व्यस्त रहते थे और उसी व्यस्त अवस्था में बहुधा दिन में दो-चार घंटे नाच-रंग, दुराचार और सदाचार के लिए भी निकाल लेते थे, उस समय प्रजा अपनी थोड़ी-सी भूमि और . छोटी-सी संपत्ति के बचाव की फिक्र करते हुए भी देवालयों में जाती, कथा-वार्ता सुनती और दान-पुण्य करती थी। संध्या समय लोग भजन गाते थे। एक-दूसरे की सहायता के लिए यथावकाश प्रस्तुत हो जाते थे। यद्यपि बड़ों के सार्वजनिक पतन की विषाक्त छाया में साधारण समाज को खोखला करनेवाले अधर्ममूलक स्वार्थ का पूरा घुन लग चुका था, और कायरता तथा नीचता डेरा डाल चुकी थी, परंतु बड़ों को छोड़कर छोटों में छल-कपट और बेईमानी का आम तौर पर दौर-दौरा न हुआ था।
झाँझ बजाकर रामायण गाते थे। लुटेरों के आने की खबर पाकर इकट्ठे हो जाते थे। मुकाबले के लायक अपने को समझा तोपिल पड़े। न समझा, तोले-देकर समझौता कर लिया या समय टालकर किसी गढ़पति के यहाँ वन-पर्वत में जा छिपे।
पालर के सीधे-साधे जीवन में जहाँ विशाल झील में नहा-धोकर काम करना और पेट भर खा लेने के बाद शाम को झाँझ बजाकर ढोलक पर भजन गाना ही प्रायः नित्य का सरल कार्यक्रम था, वहाँ देवी के अवतार का चमत्कार ही एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। इसके रंग को बाहरवालों ने अधिक गहरा कर दिया था, क्योंकि पालरवालों ने इसकी विज्ञप्ति के लिए स्वयं कोई कष्ट नहीं उठाया था।
वही चमत्कार उन दिनों उनकी विपत्ति का कारण हुआ। असंख्य घुड़सवारों की टापों से टूटे हुए हरे-हरे पौधों की टहनियों को धूल के साथ गगन में उड़ते देखना वहाँ के बचे-खुचे लोगों का जागते-सोते का स्वप्न हो गया था।
जिस दिन दलीपनगर के राजा की मुठभेड़ कालपी के दस्ते के साथ हुई, उसी दिन कुमुद का पिता उसे लेकर कहीं चल दिया था। सब धन-संपत्ति नहीं ले जा पाया था। उसका ख्याल था कि शायद शांति हो जाए। थोड़े ही दिन बाद लौटकर आया।
उसके पड़ोस में केवल ठाकुर की एक लड़की, जिसका नाम गोमती था, रह गई थी। वह घर में अकेली थी। देवीसिंह के साथ इसी का विवाह होनेवाला था। परंतु दूल्हा को राजा की पालकी थामे हुए गिरते लोगों ने और गोमती ने देख लिया था। लोचनसिंह की सहानुभूतिमयी वार्ता गोमती नहीं भूली थी। दूसरे दिन जब राजा नायकसिंह दलीपनगर की ओर चलने लगे, तब डर के मारे किसी पालर निवासी ने देवीसिंह की कशल-वार्ता का समाचार भी न पछा था। गोमती स्वयं जा नहीं सकती थी। उड़ती खबर सुन ली थी कि हाल अच्छा नहीं है। लोचनसिंह सरीखे मनुष्य जिस बेड़े में हों, उसमें वह दीन घायल युवक कैसे बचेगा? परंतु एक टूटती-जुड़ती आशा थी-शायद भगवान् बचा लें, कदाचित् दुर्गा रक्षा कर दें।
नरपतिसिंह को गाँव में फिर देखकर गोमती को बड़ा ढाढ़स हुआ। जाकर पूछा, 'काकाजू, कहाँ चले गए थे? दुर्गा कहाँ हैं?'
'मंदिर में हैं।' नरपतिसिंह ने अपना सामान जल्दी-जल्दी बाँधते हुए उत्तर दिया। 'मैं अपनी दुर्गा की बात पूछती हूँ।' गोमती बोली।'मंदिर में है।' वही उत्तर मिला।
बड़ी विनय के साथ गोमती ने कहा, 'काकाजू, मैं भी उसी मंदिर में तुम्हारे साथ चलूंगी। जहाँ कुमुद होगी, वहीं मेरी रक्षा होगी। इस विशाल झील के सिवा और कोई मेरा यहाँ रक्षक नहीं।'
सामान का बाँधना छोड़कर नरपतिसिंह बोला, 'क्या दुर्गा रक्षा नहीं करती हैं? ऐसा कहने से बड़ा पाप लगता है।'
गोमती ने दृढ़ अनुनय के साथ कहा, 'इसीलिए तो आपके साथ चलूंगी। मेरे पास कोई सामान नहीं है। एक धोती और ओढ़ने-बिछाने का छोटा-सा बिस्तर है, कंधे पर लुटिया-डोर डाल लूंगी। यहाँ नहीं रहूँगी। साथ चलूँगी। जहाँ कुमुद होगी, वहीं चलेंगी।'
अचल कंठ से गोमती ने उत्तर दिया, 'चलूँगी, चाहे जितनी दूर और चाहे जैसे स्थान पर हों।'
'विराटा, भयानक बेतवा के बीच में यहाँ से दस कोस।' 'चलँगी।' थोड़ी देर बाद दोनों पोटली बाँधकर पालर से चल दिए।
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