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विराटा की पद्मिनी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7101
आईएसबीएन :81-7315-016-8

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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...

: १४:

कालपी से आगा हैदर ने जनार्दन को लिखा था कि अलीमर्दान नाराज तो बहुत था, परंतु अब शांत है और दलीपनगर को मित्र की दृष्टि से देखता है, लड़ाई की कोई संभावना नहीं है और मुझे कुछ दिनों मेहमान बनाए रखना चाहता है।


असल बात कुछ और थी। निजामुलमुल्क हैदराबाद में करीब-करीब स्वतंत्र हो गया था। मालवा स्वतंत्रता के मार्ग पर दूर जा चुका था। परंतु मराठे अपने संपूर्ण अधिकार के लिए वहाँ दौड़-धूप कर रहे थे। दिल्ली में सैयद भाई अस्त हो चुके थे और वह कठपुतलियों को नचानेवाले ओछे हाथों में थी। बुंदेलखंड के पूर्वीय भाग में महाराज छत्रसाल की तलवार झनझना रही थी। मुहम्मद खाँ बंगश उस झनझनाहट का विरोध करता फिर रहा था। अलीमर्दान दिल्ली, मालवा और बंगश के चक्रव्यूह से बचकर अपनी धुन बना ले जाने की चिंता में था। दिल्ली का भय उसे न था, परंतु उसकी ओट की परीक्षा थी। दिल्ली से ससैन्य आने के लिए बुलावा आया था। बिना समझे-बूझे शीघ्र दिल्ली पहुँच जाना उन दिनों दिल्ली का कोई सूबेदार, फौजदार या सरदार आफत से खाली नहीं समझता था। मेरे लिए कोई षड्यंत्र तो तैयार नहीं है? मुहम्मद खाँ बंगश ने तो कोई शरारत नहीं रची है?

बंगश उसका मित्र था। परंतु अलीमर्दान उसकी लड़ाइयों में बहुत कम शामिल होता था। होता भी तो उस समय के मित्र के षड्यंत्र, विष और खड्ग से कैसे बचता? इसलिए उसे बंगश पर और बंगश को उस पर संदेह रहता था। अतएव उसने शांति के साथ कालपी में कम से कम कुछ दिनों डटे रहना तय किया। दलीपनगर पर आक्रमण करने की बात उसने सदा के लिए स्थगित कर दी हो, सो नहीं था। मित्र-भाव दिखाकर वह दलीपनगर को सषप्त रखना चाहता था। अवसर आने पर चढ़ाई कर देगा, इस निश्चय को उसने सावधानी से गाँठ में बाँध लिया था।


आगा हैदर का जो अतिथि-सत्कार हुआ, उसने अलीमर्दान के मनोगत भाव को और भी न समझने दिया।

ऐसी परिस्थिति में जनार्दन ने राजा के मनोवेग का समर्थन किया। दलीपनगर में सेना का एक काफी बड़ा भाग अपनी मंडली के कुछ विश्वस्त लोगों के हाथ छोड़ा और पंचनद की ओर राजा को लेकर कूच कर दिया। खबर लेने के लिए जहाँ-तहाँ जासूस नियुक्त कर दिए। वह राजा का साथ बहुत कम छोड़ता था।
रानियाँ साथ गईं। देवीसिंह अब बिलकुल चंगा हो गया था। उसे भी राजा ने साथ ले लिया।


कहने के लिए कई बार सोची हुई बात को जनार्दन ने मार्ग में एकांत पाकर देवीसिंह से कहा, 'आप बड़े वीर हैं। उस दिन महाराज की रक्षा आप ही ने की।'

'बुंदेला का कर्तव्य ही और क्या है, शर्माजी?' देवीसिंह ने लापरवाही के साथ कहा, 'परंतु अब किस तरह उनके प्राण बचेंगे, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है।' ।
'दवा-दारू हो रही है। देखिए, आशा तो बहुत कम है।' आह भरकर जनार्दन बोला।


'ऐसी दशा में महाराज को इतनी दूर नहीं आने देना चाहिए था।' 'यमुनाजी की रज में वह अपने जन्म की यात्रा समाप्त करना चाहते हैं, इसलिए हम लोगों ने निषेध का उपाय नहीं किया।'

देवीसिंह ने पूछा, 'यदि महाराज का स्वर्गवास बीच में ही हो गया, तब क्या कीजिएगा?'
उत्तर मिला, यमुनाजी की रज में उनके फूल विश्राम करेंगे। आपके प्रश्न के साथ हम सबकी एक और घोर चिंता का भी संबंध है। वह यह कि उनके पश्चात् इस राज्य का शासन कौन करेगा?'


'सिवा बुंदेला के और कौन कर सकता है?' देवीसिंह ने कहा, 'कुंजरसिंह तो दासीपुत्र हैं, गद्दी के हकदार नहीं हो सकते, इसलिए कोई भाई-बंद ही सिंहासन पर बैठेगा।' _ 'परंतु।' जनार्दन ने मुसकराकर कहा, 'भाई-बंद कोई ऐसा नहीं, जिसका दृढ़तापूर्वक अपने चेत में उन्होंने निषेध न किया हो। रानियाँ अवश्य हैं।'

देवीसिंह बोला, 'यह समय स्त्रियों के राज्य का नहीं।' 'और इधर-उधर कोई भी उपयुक्त भाई-बंद नहीं। बड़ी कठिन समस्या है।' 'सब बुंदेले भाई-बंद ही हैं।' 'आप भी?' जनार्दन ने आँख गड़ाकर पूछा। उसने उत्तर दिया, 'हाँ,मैं भी। प्रजा होने से क्या भाई-बंद में अंतर आ सकता है?' हँसते हुए जनार्दन ने पूछा, 'आपको राजा नियुक्त कर दें तो?'
देवीसिंह सन्न रह गया। जरा रीती दृष्टि से जनार्दन की ओर देखने लगा। जनार्दन बोला, 'यदि कर दें, तो गो-ब्राह्मणों की तो रक्षा होगी?' और हंसा।

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