ऐतिहासिक >> विराटा की पद्मिनी विराटा की पद्मिनीवृंदावनलाल वर्मा
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वृंदावनलाल वर्मा का एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास...
बड़ी रानी की जरूर कुछ कृपा थी, परंतु उस कृपा में स्नेह के लिए, व्याकुल हृदय के लिए प्रीति न थी।
पालर में एक आलोक उसने देखा था। वह बिजली की तरह चमका और उसी तरह विलीन हो गया। उसकी दिव्यता का आतंक-मात्र मन पर गढ़ा हुआ था और जैसे प्रातःकाल कोई सख-स्वप्न देखा हो, किसी आकाश-कसम के दूर से एक क्षण के लिए दर्शन किए हों और वह विस्तृत अनंत प्रसारमय प्रकाश में ही कहीं छिप गया हो।एक-आध बार कुंजरसिंह ने सोचा, स्त्री थी, मनोहर थी, लज्जावती था, एक बार स्नेह की दृष्टि से देखा भी था। परंत यह भाव बहत थोड़ी देर मन में टिकता। उसके मानस-पटल पर जो चित्र बना था, वह स्पष्ट दृष्टिवाली, अपरिमित शालीनतामय नेत्रोंवाली. कठिनाइयों के सामने अपनी कोमल. गोरी भजा की एक छाटा उगली के संकेत से अनंत लहरावलि की प्रबलताओं को जगानेवाली दुर्गा का था। स्वप्न सच्चा था, अनुठा था और शांतिदायक था। अथवा कदाचित उत्साह-मात्र दान करनेवाला। परंतु उस समय के चिंताजनक और शून्य-से काल में उस आलोक की दिव्यता-मात्र की स्मृति ही थी।
कुंजर को सिंहासन की आशा कम थी, परंतु उपेक्षा न थी। उसने लोगों से प्रायः सुना था कि संसार में पासा पलटते विलंब नहीं होता।
राजा की बहुत बढ़ती बीमारी में एक दिन बड़ी रानी ने राजा के पास से लौटकर अपने महल में कुंजर को बुलाया।
कहा, 'राजा का बचना असंभव जान पड़ता है, मेरे सती हो जाने के बाद किसका राज्य होगा?'
'इस तरह की बातें सुनकर मेरा मन खिन्न हो जाता है और यथासंभव मैं इस तरह की चर्चा से बचा सकता हूँ।'
'परंतु कुंजर!' रानी ने कहा, 'जो अवश्यंभावी है, वह होकर रहेगा।'
कुंजरसिंह ने एक क्षण सोचकर उत्तर दिया, 'जो आप सती हो गई और महाराज ने किसी को उत्तराधिकारी नियक्त न किया, तो इस राज्य का अनिष्ट ही दिखाई देता है।''छोटी रानी राज्य करेंगी।' रानी ने आँखें तानकर कहा, 'वह सती न होगी।'
कुंजरसिंह बोला, 'यह आपको कैसे मालूम?'
'क्या मैं उनकी प्रकृति को नहीं जानती हूँ? वह राज्य-लिप्सा में चाहे जो कुछ कर सकती हैं। वह देखो न, देवीसिंह नाम का एक दीन ठाकुर, जो महाराज ने अपने महल में ठहरा रखा है, उनकी आँखों में खटक गया है। कारण केवल इतना ही है कि मैंने दो मीठी बातें कह दी थीं।' रानी ने उत्तर दिया।
'परंतु।' कुंजरसिंह बोला, 'महाराज उस बेचारे को थोड़े ही राज्य दे रहे हैं, जो छोटी सरकार को खटके।' और उसने घबराहट की एक साँस को दबाया।
रानी ने कहा, 'कुंजरसिंह,जब तक मैं राज्य का कोई स्थायी प्रबंधन कर दूँगी, सती न होऊँगी। यदि मेरे पीछे रानी ने राज्य करके प्रजा को पीसा, तो मुझे स्वर्ग में भी नरक-यातना-सी अनुभव होगी।'
'मेरे लिए जो कुछ आज्ञा हो, सेवा के लिए तैयार हैं। संसार में आपके सिवा और मेरा कोई नहीं।'
'तीन आदमियों के हाथ में इस समय राज्य की सत्ता बँटी हुई है-जनार्दन, लोचनसिंह और हकीमजी। इनमें से किस पर तम्हारा काब है?'
'काबू तो मेरा पूरा किसी पर नहीं है।' कुंजरसिंह ने विश्वास परित्याग कर उत्तर दिया, परंतु लोचनसिंह थोड़ा-बहुत मेरा कहना मानते हैं।'
'और जनार्दन?' रानी ने पूछा। 'वह बड़ा काइयाँ है। उसका दाव समझ में नहीं आता।' 'मैं उसे बहुत दिनों से जानती हूँ। मैंने उसके साथ बहुत से अहसान भी किए हैं। वह उन्हें भूल नहीं सकता। उसे ठीक करना होगा।'
'कैसे?' कुंजरसिंह ने भोले भाव से प्रश्न किया। .
रानी ने अवहेलना की सूक्ष्म दृष्टि से कुंजर का अवलोकन किया। फिर जरा मुसकराकर बोलीं, 'मैं उसे ठीक करूँगी। जो कुछ कहती जाऊँ, करते जाना और यदि महाराज स्वस्थ हो गए और मैं उनके समय उस लोक को चली गई तो सोलह आना बात रह जाएगी।'
कुछ क्षण बाद फिर बोलीं, कालपी से एक चिट्ठी आई थी। कल महाराज को जनार्दन ने सुनाई। आपे से बिलकुल बाहर हो गए।' रानी ने चिट्ठी का सविस्तार वृत्तांत कुंजरसिंह को सुनाया।
कुंजरसिंह ने भी उस चिट्ठी का हाल सुना था, परंतु यथावत् उसे मालूम न था। रानी के मुख से संपूर्ण ब्योरा सुनकर उसे आश्चर्य हुआ।रानी बोली, 'मुझे राज्य की खबरों का सब पता रहता है। यह तुमने समझ लिया या नहीं?'
'नहीं, परंतु जनार्दन ने पता लगा लिया है। बहुत सुरक्षित स्थान में विराटा के रजवाड़े के दाँगी राजा सबदलसिंह के दुर्ग में वह पहुँच गई है।' फिर कहा, 'हकीमजी जनार्दन के कहने में हैं। जनार्दन को ठीक कर लेने से वह भी ठीक हो जाएंगे।'
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