लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
पूर्वी देशों में एक जुमला काफ़ी चालू है-'पश्चिम में फ्री-सेक्स चलता है। लेकिन मैं अपने लम्बे समय के तजुर्बे से कह सकती हैं कि पश्चिम में मैंने कोई फ्री-सेक्स नहीं देखा। फ्री-सेक्स तो मैंने पश्चिम बंगाल में देखा है, बांग्लादेश में देखा है। यहाँ यौन उत्तेजना की तीव्रता में, पुरुष किसी पर भी टूट पड़ने में नहीं हिचकिचाते। पश्चिम में सेक्स के लिए एक बहत बड़ी चीज की ज़रूरत पड़ता है और वह है प्यार! कम-से-कम भला तो लगना चाहिए। एक और भी चीज की ज़रूरत होती है उसका नाम है-ईमानदारी। वैसे पश्चिम में इसका कोई व्यतिक्रम नज़र नहींआता, ऐसा नहीं है। साइकोपैथ सभी देशों में होते हैं। कहीं कम, कहीं ज़्यादा। किसी बंगाली साइकोपैथ को क्या सच-सच ही साइकोपैथ कहा जाता है? नहीं, नहीं कहा जाता बल्कि बहुत बार उन लोगों को बुद्धिजीवी कहा जाता है। हमारे बुद्धिजीवी सोचते हैं कि वे लोग अपनी मनमर्जी करने का अधिकार रखते हैं और समस्या यही है। बुद्धिजीवी आमतौर पर पुरुष होते हैं। अगर वे लोग अन्याय करते हैं, तो उस अन्याय को अन्याय नहीं समझा जाता। सत्तर की उम्र पार करने के बाद भी, बुद्धिजीवी लोग सत्रह वर्ष की किशोरी की छाती पर पंजा बिठाने में संकोच नहीं करते। उस पंजे को लोग अपने को गौरवान्वित करते हुए, खुद ही माफ कर देते हैं और कहते हैं कि यह तो कोई कविता या 'उपन्यास लिखने या कोई कलाकृति गढ़ने की प्रेरणा ग्रहण करना है इसके अलावा और कुछ नहीं। उन लोगों के शिष्य सिर हिला कर हुंकारी भर देते हैं। यहाँ, इस गुरु-शिष्य के देश में, साधारण से दो इंच ऊपर उठ कर ही, कोई भी गुरु बन सकता है और बाज़ार में हाथ बढ़ाते ही अनगिनत शिष्य भी मिल जाते हैं। अगर कहो-पृथ्वी चपटी है, शिष्य लोग समवेत स्वर में हुंकारी भरेंगे-ठीक! ठीक! सुना है, पुरुष-शिष्य उन लोगों को अपनी पत्नियाँ उपहार स्वरूप अर्पित करते हैं। गुरु चखने-वखने के बाद, डकार लेते हुए जिसका माल, उसे लौटा देते हैं, लेकिन दोबारा चखने या दोबारा उपयोग करने के अलिखित समझौते के बाद ही लौटाते हैं। यह मामला एकतरफ़ा नहीं होता। गुरु लोग भी मौका पाते ही अपने शिष्यों को सैकड़ों तरह की सुविधाएँ प्रदान करते हैं और अपनी बेजोड़ उदारता का प्रदर्शन करते हैं।
अच्छा, पुरुषों में क्या नीति नाम की कोई चीज़ नहीं होती? हाँ, बहुतेरे लोगों में नीति होती है। अधिकांश लोग बाहर-बाहर नीति-प्रदर्शन करते हैं, हालाँकि उनके अन्दर ही अन्दर दुर्नीति का अखाड़ा मौजूद होता है। जी नहीं, मैं हर व्यक्ति की बात नहीं कर रही हूँ लेकिन अधिकांश लोगों के बारे में कह रही हूँ। अपनी बीवियों को वे लोग घर का प्राणी कहते हैं। घर की बहू! घर-द्वार पहरा देने के लिए, घर-द्वार का कामकाज निपटाने के लिए। चूँकि औरत घर में ही रहती है, इसलिए बीवी के साथ रिश्ता घरेलू होता है। वे लोग बीवी को ले कर घर से बाहर ही नहीं निकलते ऐसा भी नहीं है। बाहर निकलते हैं लेकिन वह किसी मित्र के साथ बाहर घूमने जैसा नहीं होता, बल्कि काफ़ी कुछ बोझिल और तनावग्रस्त जैसा होता है। मैंने गौर किया है कि परुषों को औरत के अगल-बगल चलने की आदत ही नहीं होती। पति आगे-आगे चलता है, पत्नी पीछे-पीछे। शायद सात फेरे से ही सुखी विवाह की यह शर्त शरू हो जाती है। हाँ, पुरुष अपनी प्रेमिका के अगल-बगल ज़रूर चलता है। लेकिन तभी तक चलता है जब तक प्रेमिका उसकी मुट्ठी में नहीं आ जाती। जितने दिन पाने की उम्मीद में रहता है उतने दिनों साथ-साथ चलता है। प्रेमिका मुट्ठी में आयी नहीं कि मैं आगे-आगे, तुम पीछे-पीछे।
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- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
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- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
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- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
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- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
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- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं