लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
दुनिया में पुरुष ही राजनीतिक, अर्थनैतिक, धर्म, अधर्म, समाज, गृहस्थी, शिक्षा-स्वास्थ्य-संस्कृति में महान मस्तान हुआ बैठा है। इन सब नीति-रीति को पुरुषमय किये रखने के लिए पुरुष वर्ग भयंकर रूप से सक्रिय है। यही सक्रिय पुरुष बिस्तर पर जा कर, नारी नामक भोग्य-वस्तु को कैसे अनुमति दे सकते हैं कि वह सक्रिय हो? असम्भव! अहम् के घर में आग लग जायेगी। पुरुष नारी को उतना भर ही हिलने-डुलने देगा जितना हिलने-डुलने से पुरुष के मन में पुलक जागे। वात्स्यायन जनाब भले चौंसठ मुद्राओं की बात ज़ोर-ज़ोर से दुहराते रहे हों लेकिन बंगाली बाबू सिर्फ एक लक्ष्य मुद्रा में ही तृप्त हो लेते हैं। बाकी तिरेसठ मुद्रा के पीछे वक़्त ख़र्च न करके, नारी को पैसिव या पोई साग बना रखने का कला-कौशल पुरुष वर्ग ने बखूबी रट लिया है।
पुरुष में रसबोध कम होता है। चूंकि नारी के रसबोध के बारे में वे लोग आतंकित रहते हैं। रस-क्षरण न हो तो यात्रा आरामदेह नहीं होती, यह जानने के बाद भी रस-क्षरण की राह में पुरुषों के जाने में खासा एतराज़ या आलस्य होता है। चूंकि पुरुष प्रस्तुत है इसलिए सभी को प्रस्तुत रहना होगा। यानी घोड़ा तैयार है, लगाम तैयार है! ऑर्डर! ऑर्डर! बस एक चुटकी बजायी नहीं नारी को तैयार होना होगा, वर्ना तुम कैसी नारी हो? तुम कैसी सेविका हो? किस बात में आनन्ददायिनी, मनोरंजनी हो? पुरुष के सुख-शान्ति-चैन के लिए आत्महुति देने के लिए नारी हर कहीं एक पाँव पर खड़ी रहती है।
शीर्ष सुख क्या नारी जानती है? कितनी नारियाँ जानती हैं? नारी तो यही जानती है कि दुनिया में जितना भी सुख है, सब पुरुषों के लिए है। वैसे नारी के हिस्से में कोई भी सुख नहीं है, ऐसा भी नहीं है। नारी का सुख, पुरुषों को सुख देने में है। नारी के हिस्से में अन्य कोई सुख होना भी नहीं चाहिए, आनन्द का कोई अहसास नहीं होना चाहिए। इसी तरह पुरुषों ने युग-युग से नारी के दिमाग़ में त्यागमयी होने का मंत्र भर दिया है। नारी का त्याग ही सर्वाधिक प्रार्थनीय है। नारी अपनी निजता, अपना पृथक अस्तित्व, अपनी साथ-आकांक्षा, अपनी खुशी-सारा कुछ खुशी-खुशी त्याग कर देगी और पुरुष इसी त्याग को ऐश-आह्लाद से भोग करेगा। नारी के त्याग जैसी स्वादिष्ट और उपादेय सामग्री, दुनिया में और कुछ भी नहीं है।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं