लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
नहीं, हमारा नारीवादी वर्ग ऐसा नहीं कहता। ऐसा उसने कभी भी नहीं कहा। पश्चिमी नारीवादियों के हाथ से काफ़ी कम ही बलात्कार रिहाई पाते हैं। वहाँ की औरतें इस जघन्य, घृणित नारी-निर्यातन के ख़िलाफ़ अर्से से संघर्ष कर रही हैं। इन औरतों ने किसी को भी छूट नहीं दी है।
आजकल पश्चिमी देशों में औरतें प्रायः पूर्ण स्वाधीनता के साथ जी पा रही हैं। वहाँ प्रेम, सेक्स-सम्पर्कों में औरतों का उद्योगी होना, सक्रिय होना अत्यन्त स्वाभाविक घटना है। औरत ही प्रेम के लिए पुरुष को पसन्द करती है, औरत ही शारीरिक तौर पर उस पुरुष की कामना करती है, वह कामना वही व्यक्त करती है और सेक्स-क्रिया में वही अधिक सक्रिय होती है।
इस देश में औरत जितनी निष्क्रिय होगी, पुरुष की यौनेच्छा उतनी तेजी से हहराकर बढ़ जाती है। पुरुष, सेक्स-सम्पर्क के लिए निष्क्रिय औरत को ही पसन्द करते हैं। नारीवादियों का कहना है कि औरत को सेक्स-अधिकार अर्जित करने की कोई ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत है शिक्षा और आत्मनिर्भरता की! नारीवाद देशी ब्रांड है। वाक़ई! शिक्षा और अर्थनैतिक आत्मनिर्भरता अर्जित करने के बावजूद, जो ज़िन्दगी भर औरत ही रह जाती है और पुरुष की यौन-दासी-यह बात क्या वे लोग जानते नहीं या मानते नहीं? या अन्दर ही अन्दर पुरुषतन्त्र की जड़ को सिंचाई और खाद वगैरह के ज़रिये, उसे तरो-ताज़ा बनाये रखते हैं।
इस देश में औरतें शान से सिर उठा कर नहीं जी पातीं। औरत में कोई अहंकार होना ही नहीं चाहिए। जाने किस ज़माने में, मताधिकार आन्दोलन की नेता, एलिज़ाबेथ कैडी स्टैन्टन ने कहा था-'वी आर, ऐज ए सेक्स, इनफिनिट्ली सुपीरियर टु मैन!' इस भारतीय उपमहादेश में इस बात पर कितनी औरतें विश्वास करती हैं या यह बात दुहराती हैं?
हम औरतें, पुरुषों के मुकाबले, हर तरह से बड़ी हैं। यह जुमला जुबान पर लाते ही पुरुष के होठों पर कौतुकी हँसी तैर जाती है, औरतें भी हँस देती हैं। केवल लिंग के मामले में ही नहीं, विवेक-बुद्धि में, विलक्षणता में, विद्रोह और विस्फोट में, कष्ट-तकलीफ़ झेलने में, औरत हमेशा से ही पुरुष से बढ़ कर रही है। लेकिन हज़ार-हज़ार वर्षों से उस शक्ति को बेड़ियों में कैद रखा गया है। सीधे, इतने अर्से बाद जंजीरें टूट रही हैं।
मेरी राय में पुरुष-विद्वेष एक सम्मानजनक, राजनैतिक आदर्श है, जिस आदर्श में अत्याचारिता को अधिकार है कि वह अत्याचारी वर्ग के विरुद्ध घृणा उछाल दे-इस देश में कितने लोग यह जमला अपनी ज़बान पर ला सकेंगे? आजकल तो लिबरलिज़्म का ज़माना है। जितना ही समझौता करो, उतना ही बेहतर है। तुम जितना ही मानकर चलो, उतने ही तुम सहिष्णु हो, उतने ही शान्तिप्रिय! जो लोग हमेशा से ही अशान्ति मचाये रहते हैं, अशान्ति जिनके खून में है, दिमाग के कोष-कोष में, उन लोगों से क्या सचमुच कोई शान्ति-समझौता होता है या हो सकता है?
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं