लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
कुछेक लोगों का कहना है कि बलात्कारियों का बलात्कार-दण्ड ही काट फेंकना चाहिए। इसके फलस्वरूप बलात्कारियों द्वारा बलात्कार तेज़ी से बन्द हो जायेंगे। लेकिन क्या सच ही ऐसा होता है? इस राज्य में धनंजय को फाँसी देने के अगले दिन ही क्या बलात्कार नहीं हुए? हुए हैं। इसका कारण क्या है? बलात्कार के खिलाफ़ कड़े-कड़े कानून मौजूद हैं, इसके बावजूद क्या बलात्कार जरा भी कम हुए हैं? जो लोग यह कहते हैं कि लड़कियाँ चूंकि कम-कम कपड़े पहनती हैं, इसलिए परुषों को उन लोगों का बलात्कार करने को प्रोत्साहन मिलता है-मोटी बुद्धि वाले वे लोग बखूबी जानते हैं कि बड़ी-बड़ी, लम्बी-लम्बी पोशाकें, यहाँ तक कि बुर्का पहनने वाली औरतों का भी लगातार, आठों प्रहर बलात्कार नहीं हो रहा है? दरअसल, पोशाक कोई घटना नहीं है यहाँ घटना है पुरुषांग! जन्म से ही पुरुषों ने यह सीखा है कि वे लोग अपनी दोनों जाँघों के बीच झूलती हुई, दो या तीन इंच की कामकाजी या निकम्मी चीज़ के दम पर दुनिया विजय कर सकते हैं। यह शिक्षा पुरुषों को, स्कूल, कॉलेज, रास्ता-घाट, नौकरी के स्थल, व्यवसाय-प्रतिष्ठान, कानून-नियम, शहर-गाँव में, राष्ट्र या राज्य में, घर-गृहस्थी में-हर कहीं मिलती रहती है। घर-बाहर जो शिक्षा और जिस शिक्षा की चर्चा, पुरुष हज़ारों वर्षों से चलाए जा रहे हैं, कितने परुषों में इतनी हिम्मत है कि उसे खारिज़ कर दें?
कुछेक वर्ष पहले, बांग्लादेश में एक घटना घटी थी। यास्मीन नामक एक लड़की, उम्र पन्द्रह वर्ष, ढाका शहर के किसी मध्यवित्त के यहाँ काम करती थी। उस घर का मालिक हर रात यास्मीन के साथ बलात्कार करता था। एक रात, यास्मीन उस घर से भाग खड़ी हुई। वह अपने पिता के घर जा रही थी। रास्ते में उसे पुलिस ने धर दबोचा।
'कहाँ जा रही है?'
'अब्बा के घर!'
'तेरे अब्बा का घर तो काफ़ी दूर है! चल, तुझे हम पहुँचा देंगे। चल आ, गाड़ी में बैठ जा।'
पुलिस-गाड़ी अँधेरे में किसी निर्जन जगह में रुक गयी। वहाँ सात-सात पुलिस वालों ने जी भरकर यास्मीन का बलात्कार किया। बलात्कार के बाद उन लोगों ने उस औरत को मार डाला और कूड़े के ढेर में फेंक दिया।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं