लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
औरत कर न सके, तो ऐसा कुछ नहीं है। शान्ति चाहे तो शान्ति स्थापित कर सकती है। अशान्ति चाहे तो अशान्ति भी फैला सकती है, जितना वह प्यार कर सकती है, उतनी ही नफ़रत भी। इस दुनिया में मर्दो ने जितनी बार सडाँध फैलायी है, उतनी बार औरतों ने उसे दुर्गन्धमुक्त किया। उतनी बार उसने फसलें उगायी हैं। सभी लोग सौहार्द-स्नेह-सिक्त हुए हैं। इसी औरत को ही नेपथ्य में रख कर पुरुष ने श्रेय लिया है। नारी सृजन करती है और पुरुष अपने में भ्रातृत्व-बन्धन में समृद्ध होता है। नारी के लिए क्या ऐसा कोई शब्द होता है! भगिनित्व? बहनत्व ? ना, नहीं है! इसका प्रचलन भी नहीं है और उल्लेख भी नहीं है! औरतों को तो अलग-थलग कर दिया जाता है। माँ से, बहन से, मित्र से! औरत से औरत का योग-संयोग हमेशा-हमेशा के लिए नष्ट कर दिया जाता है। इतिहास की शुरुआत से ही नारी-बन्धन तरह-तरह के धर्मों में, तन्त्रों में, मन्त्रों में फँसकर नष्ट हो गया। औरतों को तो पुरुष बाँध देते हैं, लेकिन औरत के साथ औरत के बन्धन का कोई उपाय नहीं है। औरत अपने अधिकार न पाकर, उसके लिए गला फाड़-फाड़ कर चिल्लायें, एक स्वर सुनकर सौ स्वर उसमें आ मिलें, उसके लिए हजारों स्वर घुलमिल जायें, इसका कोई उपाय नहीं। औरतों का कोई शक्तिशाली संगठन नहीं है, जो है वह अधेड़ गृहवधुओं का दल, जो महीने या साल में एक बार मिलती हैं, गुनगुनाकर गाने गाती हैं और अपनी आज़ादी का प्रसार देख कर, खुद ही मुग्ध हो लेती हैं या सुध-बुध खो देती हैं।
सन्दरी औरतों की संज्ञा भी पुरुषों ने ही तैयार की है। उस संज्ञा के मुताबिक़ औरतें अपने बनाव-श्रृंगार में पगलायी रहें, अपने को बढ़-चढ़ कर खूबसूरत दिखायें। वर्ना समाज में उनका मान-सम्मान नहीं होता। आत्मनिर्भर औरत जो धन कमाती है, उसका अधिकतम हिस्सा अपने सिंगार-पटार पर ही खर्च कर देती है। उसके पास अपने लिए जो समय जुटता है, उसका ज़्यादा हिस्सा इस सोच और तदबीर में निकल जाता है कि क्या पहने-ओढ़े कि लोग उसके प्रति आकर्षित हों! वाक़ई मर्दो ने औरत को व्यस्त रखने के लिए क्या खूब काम सौंप दिया है। खाना पकाना, बच्चे-पालना, घर-गहस्थी के अलावा भी एक बड़ा-सा काम! ताकि इनमें व्यस्त औरत को राजनीति, अर्थनीति समझने का वक्त ही न मिले। यहाँ तक कि क्रिकेट जैसा खेल समझने जितना मामूली समय भी उसे नसीब न हो। अपने अधिकार का 'अ' शब्द समझने का तो सवाल ही नहीं उठता। इतनी-इतनी बंदिशें, इतनी बाधाएँ! साजिशों के सैकड़ों जाल! यानी औरत को कुचल-पीसकर निश्चित करने के सारे आयोजन मौजूद हैं। इसके बाद भी औरत मेरुदण्ड सीधा किये, खड़ी नज़र आती है। इसी नारी-विद्वेषी समाज में ही जन्म लेती हैं-महाश्वेता, मेधा और ममता जैसी निर्भीक औरतें!
हम तो उम्मीद कर सकती हैं न कि और-और मेधा-महाश्वेता जन्म लें। औरत में तो मेधा मौजूद है कि वह मेधा बन सके। उनमें ममता भी है। ममता बनने जैसी! उनमें भी शक्ति है, महाश्वेता बनने की। फिर भी औरत पिछड़ी हुई क्यों है? औरत सिर्फ पुत्रवधू ही क्यों बनी रहती है? औरत सिर्फ़ सन्तानों की माँ ही क्यों बनी रहती है? औरत क्यों निर्जीव, निर्बुद्धि, निष्प्रभ, निरुपाय, निस्तेज, निस्पृह, निष्क्रिय, निश्चुप और निषिद्ध बनी पड़ी रहती है? औरत तो आग बनना जानती है। तब वह आग बन कर जल क्यों नहीं उठती, जिस आग में इस समाज का विभिन्न वैषम्य जल कर खाक हो सकता है!
दुःसमय को सुसमय के करीब ले जाने के लिए, औरत ने ही हाथ बढ़ा दिया है। इस हाथ पर सैकड़ों-हज़ारों औरतें, मसाले पीसने वाले, सूई-धागे वाले, बच्चे पालने वाले हाथ रखें; इस हाथ पर कलमपेशा, हथौड़ी-बटाली वाले खेती-कुदाल के हाथ रखें। इस हाथ पर सभी-सभी औरतें अपना हाथ रख दें।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं