लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
औरत घर-बाहर शान्ति-रक्षा करती है लेकिन इसी औरत जात को दुनिया के सारे धर्मों ने 'नरक का द्वार' कहा है। पुरुष और पुरुषतान्त्रिक व्यवस्था इसी औरत जात को अनादर, अवहेलना, अ-सुख, अशान्ति में रखती है। राजनीति औरत को दूर हटाए रखती है। आज कितनी औरतें हैं जो मन्त्री हैं? कितनी औरतें हैं जो संसद-सदस्य हैं? पोलित ब्यूरो में कितनी नारियाँ हैं? कितनी नारियाँ प्रशासन चलाती हैं, कितनी महिलाएँ अकादमी के ऊँचे-ऊँचे पदों पर आसीन हैं? वैसे नारी शिक्षा की शुरुआत ही भला कब से हुई है? अभी हाल के समय तक समूचा समाज नारी-शिक्षा के ख़िलाफ़ था। वैसे आज भी क्या नारी-शिक्षा विरोधी लोग नहीं हैं? खूब हैं! बहुतायत से हैं! आज भी क्या यह सोच काम नहीं करती कि लड़कों को स्कूल भेजना चाहिए, लड़कियों को नहीं? औरतें खाना-वाना पकाने, काम-काज की तालीम लें, उसके बाद उनका शादी-ब्याह हो जाना ही भला है। औरतों को स्कूल अगर भेजा भी जाता है, वह क्या सचमुच शिक्षित बनाने के लिए? नहीं, विवाह के बाज़ार में लड़कियों का भाव बढ़ाने के अलावा यह और क्या है? शहरी लोग तो यह समझते हैं कि शहर की लड़कियाँ शायद बेहद पढ़ी-लिखी और शिक्षित होती हैं। हाय री शिक्षा! स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय पास करने के बाद भी क्या बहुत से इन्सान जानते हैं कि औरत और मर्द, दोनों ही इन्सान हैं और उन दोनों के अधिकार बराबर हैं? शिक्षित शहरी औरतें तो अपने-अपने बच्चों को स्कूल में धकियाकर, दिन-दिन भर स्कूल के गेट के बाहर खड़ी रहती हैं। दिन भर के बाद बच्चे क्या सीख कर बाहर निकलते हैं? पूरा-पूरा वर्ष गुज़र जाने के बाद भी गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल के साथ-साथ, क्या यह शिक्षा कभी उन बच्चों ने अर्जित की कि नारी और पुरुष, दोनों को समान स्वाधीनता और अधिकार हैं? और जो औरतें दस से पाँच दफ़्तर आती-जाती हैं, उन लोगों को भी क्या इसकी जानकारी है? वे लोग अपने पुरुषकर्ता के सारे आदेश-निर्देशों का सिर झुकाकर पालन करती हैं। जब वह बैठने को कहता है, वे लोग बैठती हैं, सोने को कहते हैं तो सोती हैं। उनकी अपनी योग्यता का कोई मूल्य नहीं, उनकी दक्षता की भी कोई कद्र नहीं। बस, सुबह से शाम तक जी-तोड़ पैसे कमाने का हक़ भी औरतों को नहीं दिया जाता। सिर्फ बाहर ही नहीं, घर के अन्दर भी उन लोगों का वही हाल है। केवल मेहनत करने से ही नहीं चलेगा, विसर्जन भी देना होगा। मान-सम्मान-व्यक्तित्व-जो कछ भी सिर ऊँचा करके जिन्दा रहना सिखाते हैं सब कछ का विसर्जन! जो विसर्जन देना न चाहे, ऐसी औरत को भली कहने का रिवाज़ इस समाज में नहीं है। इसलिए विसर्जन दे कर ही, उन औरतों को 'भली औरत' के खाते में अपना नाम लिखाना पड़ता है। वैसे 'भली औरत' के खाते में नाम लिखाना और वेश्या के खाते में नाम लिखाना, मेरा विश्वास है कि दोनों में कोई खास फ़र्क नहीं है।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं