लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
'लिव टुगेदर' यानी साथ-साथ रहने वाली जोड़ी और शादीशुदा जोड़ी के लिए एक जैसा ही क़ानून प्रचलित है-यह हक़ीकत ही बता देती है कि समाज सभ्यता की राह पर बेहद धीमी चाल से चल रहा है। सवाल यह उठता है कि यह क़ानून सभी धर्मावलम्बियों के लिए है। उस क़ानून में यह कहीं नहीं लिखा हुआ है कि यह सिर्फ़ हिन्दओं के लिए है या ईसाइयों या सन्थालों के लिए है। इसका अर्थ है क़ानून सभी धर्मों, सभी जाति के लोगों के लिए है। मुसलमानों के लिए भी है। लेकिन मुस्लिम लॉ के साथ, जब कदम-कदम पर इसका विरोध हो, तब क्या हो? तब किस कानून को प्रधानता दी जाये? नारी-निग्रह अगर मुस्लिम क़ानून में अन्याय नहीं है, लेकिन पारिवारिक निग्रह क़ानून में अन्याय है, तब? जनता की अदालत किसके पक्ष में होगी? अन्याय के पक्ष में या अन्याय के विपक्ष में?
पुरुष गुस्से के मारे पागल हो उठे हैं लेकिन कानून बाबू को गंज से खदेड़ देना, उन लोगों ने जितना आसान समझा था, उतना आसान शायद है नहीं। क़ानून की ज़रूरत शहर, गाँव के हर कोने-कोने में महसूस की जा रही है। किसी-किसी का कहना है कि घर के मालिक के ख़िलाफ़ अगर यह क़ानून लागू किया गया तो परिवार में झगड़ा-झंझट, अशान्ति, गलतफहमी, आपसी हिंसा, मार-पीट बढ़ जायेगी। भाव ऐसा जताते हैं जैसे अभी कोई झगड़ा-झंझट, वैमनस्य, मार-पीट नहीं है। अभी घर-गृहस्थी की दुनिया ख़ासी प्यार-प्रीति से भरी हुई है।
लेकिन इस निग्रह क़ानून में औरतों की सारी समस्याओं का समाधान दर्ज नहीं है। विवाह-विच्छेद के बाद, औरत को ख़ाली हाथ घर से निकल जाना पड़ता है, हद से हद उसे स्त्री धन थमा दिया जाता है। लेकिन आधी-आधी भागीदारी के रूप में, दाम्पत्य जीवन में अर्जित सहायक सम्पत्तियों का बँटवारा नहीं होता। इसके बँटवारे के लिए क़ानून बाबू का आगमन आखिर कब होगा? क़ानून बाबू के लिए अभी और भी बहुत से काम बाकी हैं; समान बँटवारे का काम बाकी भी है। जब वे गंज में आ बैठे हैं, तब वे पुरुषों के गाली-गलौज और त्रिशूल से धकियाये जाने पर, अपना बिस्तर-तकिया समेटकर विदा न हो लें, इन्सानियत के सर्वनाश को आमन्त्रित न करें।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं