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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :235
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :978-81-8143-985

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


3. मेरे घर में जिन बंगाली मर्दो ने दोपहर या रात का खाना खाया है, तन-बदन से चाहे कितना भी स्वस्थ-सबल हो, मैंने देखा है कि वह निहायत कमज़ोर है। अपनी प्लेट वे लोग खुद नहीं ले सकते। कोई और उनकी प्लेट में भात-तरकारी परोस देगा, इस उम्मीद में खाली प्लेट लिए बैठे रहते हैं। अपनी प्लेट में भात-तरकारी खुद डाल लें। यहाँ कोई, किसी की प्लेट नहीं सजायेगा-यह ऐलान करने के बाद मैंने देखा है कि मर्द अपनी-अपनी प्लेट में खाना डालने की कोशिश करते हैं लेकिन नाकाम रहते हैं। या तो हाथ से चम्मच गिर जाता है या मेज़ पर खाना या मेज़ से उलट कर फर्श पर बिखर जाता है। ऐसी दुर्घटनाएँ, औरतों के साथ नहीं घटतीं, सिर्फ़ पुरुषों के साथ ही घटती हैं। इसकी वजह भी, एक दिन मैंने खोज ली! अपने मित्रों के यहाँ जा कर मैंने अक्सर देखा है, घर की औरतें, पुरुषों को खाना परोसती हैं। पुरुषों के लिए मेज पर खाना लगा देती हैं और खद खडी-खडी प्यार से खिलाती हैं। तमाम पुरुष, बच्चे और मेहमानों के खा कर उठ जाने के बाद ही वे लोग खाती हैं। पुरुषों के पीछे उनकी सेवादासी बन कर खड़ी रहती हैं, यह देखने के लिए कि कहीं उनके पतियों को किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है। पुरुष, जो नारी-स्वाधीनता में विश्वास नहीं करने या घोरतर विश्वासी हैं-दोनों ही सूरतों मंर दंडायमान सेवादासी को अपनी बगल में खड़ी रख कर, खा-पी कर आराम से डकारें लेते हैं।

वह जो कहा जाता था न-पति से पहले अगर पत्नी खा ले तो पति का अमंगल होता है, अभी भी सम्भवतः यह एक ही विश्वास काम करता है-संग बैठ कर न खाने के पक्ष में चाहे जितने भी बहाने बनाएँ।

4. कलकत्ते में जहाँ कहीं जिस भी घर में दावत पर गयी हूँ, मैंने देखा है कि औरतें एक ही जगह इकट्ठी हो कर गपशप करती हैं। पुरुष अलग झुण्ड बना लेते हैं, एक दिन तो बरबस ही मेरी जुबान से निकल ही गया, 'क्या बात है. यहाँ क्या सभी समकामी लोग हैं?' मैं यथासम्भव दोनों दल को एक करने की कोशिश करती हूँ। लेकिन मेरी कोशिश ज़्यादा देर तक नहीं टिकती। परुषों की अड्डेबाजी और महिलाओं की अड्डेबाजी के विषय अलग-अलग होते हैं। कोई भी एक-दूसरे के विषय में ख़ास उत्साही नहीं होता। मैंने गौर किया है, कि महिलाओं की बातचीत का विषय होते हैं-साड़ी-कपड़े, बाल-बच्चे, खाना-वाना, पति-गृहस्थी या हद-से-हद गाना बजाना! पुरुषों का विषय होता है-राजनीति, अर्थनीति, सेक्स, रुपये-पैसे। खैर, ये विषय पचास वर्ष पहले भी थे। कितने कुछ में विवर्तन भी घटा है। लेकिन, सिर्फ औरत-मर्द के गपशप का विषय ही एक रह गया है। गपशप का विषय एक क्यों नहीं होता? इसी तरह छाती पर चढ़ बैठने को ही तो पुरुषतन्त्र कहते हैं। विवर्तन तो डाल-डाल, पात-पात में घट रहा है, जड़ में नहीं घट रहा है।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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