लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
मुझे किसी-न-किसी के साथ रहना ही होगा, क्योंकि मैं 'जनाना' हूँ, 'औरत जात' हूँ। औरत तो शरीर होती है! लोभ का शरीर। शरीर के अलावा और वह कुछ नहीं होती। पुरुष इस शरीर की ओर ललचाई नज़रों से देखेंगे। पुरुष का पहरा न हो तो औरत का कुँवारापन ख़त्म हो जाता है। सतीत्व के बारह बज जाते हैं। जैसे आँगन में पड़े अधखाये अनानास के टुकड़े पर मक्खियाँ भिनभिनाने लगती हैं। दनिया में अकेली औरत कौन चाहता है? गृहस्थी में अकेली औरत का नाम सुन कर लोग भय और लज्जा, दोनों ही भाव से थरथरा उठते हैं। औरत को हरगिज़ अकेली नहीं रहना चाहिए। शरीफ औरतें अकेली नहीं रहतीं। अभद्र, बाज़ारू औरतें, वेश्या औरतें अकेली रहती हैं। मैं ठहरी नामी-गिरामी अस्पताल की व्यस्त डॉक्टर! लेकिन चूंकि मैं अकेली रहती थी इसलिए मुहल्ले वाले मेरी तरफ़ आँखें सिकोड़ कर शैतानी हँसी हँसते थे मानो वे किसी वेश्या को देख रहे हों! ऐसी होती थी उनकी हँसी!
मैं अम्मी को अपने यहाँ ले आयी। लेकिन जैसी 'अकेली औरत' वैसी दुकेली-यानी 'दो औरत'! उस घर में मेरे लिए ज़्यादा दिनों तक रहना सम्भव नहीं हुआ। अड़ोसी-पड़ोसियों के नाक सिकोड़ने से परेशान हो कर मालिक-मकान ने मुझे खदेड़ दिया। अकेली लड़की या औरत को कोई आश्रय नहीं देता, प्राण प्यारा दोस्त भी उस वक्त खिसक लेता है। महीनों तक मुझे होटल में रहना पड़ा। 'मैं अकेली रहूँगी' इस दृढता की वजह से ही रह पायी। उन दिनों मुझे ऐसी ज़िद चढ़ी थी कि उस वक्त घप्प अँधेरी रात में कोई दुर्गम अरण्य भी पार कर जाती। समुन्दर का बर्फीला पानी तैर कर पार कर जाती। समाज के असभ्य-बेअदब नियमों ने मुझे बार-बार चीर डालने की कोशिश की, मुझे तोड़-मरोड़ कर, निचोड़ कर निःशेष कर देने की कोशिश की, इसके बावजूद मैंने अपने को अटल-अडिग रखा। इस भयंकर नारी-विद्वेषी समाज में पुरुष को अस्वीकार करके, औरत का अकेली रहना कितना जोखिम भरा होता है, यह मैंने अपना जीवन दे कर जाना है। उसी किस्म की और तकलीफें झेलने और लात-घूसे-थप्पड़ खाने के बाद आखिरकार मैं किसी 'शरीफ मुहल्ले' में एक अदद अपार्टमेण्ट खरीदने को लाचार हो गयी। मैंने सोचा था कि अब कोई झंझट-झमेला नहीं होगा; अब मुझे किसी विद्रूप, किसी तमाशे का शिकार नहीं होना होगा। लेकिन खरीदे हुए निजी घर में भी समस्याएँ शुरू हो गयीं। झमेलों की शुरुआत तब हुई, जब मैं एक नौजवान से मुहब्बत करने लगी। 'यह छोकरा कौन है? क्या रिश्ता है उससे?' मेरा जवाब था-'वह मेरा प्रेमी है।' प्रेमी? प्रेमी मानो कोई शब्द न हो कोई बम हो। अपने प्रेमी को साथ लिए-लिए मैं मैर-तफरीह करती फिरूँ, बीच-बीच में मेरा प्रेमी मेरे यहाँ रात गुजारे, यह किसी भी शख्स से बर्दाश्त नहीं होता था। सच तो यह था कि चूँकि मैं अकेली रहती थीं इसलिए अड़ोसी-पड़ोसियों की निगाहें मुझ पर कुछ ज़्यादा ही गड़े रहती थीं। नहीं! मैंने किसी के ताने-फ़िकरे न किसी के भी आदेश-नाराज़गी के ख़िलाफ़, मारे गुस्से के अपने घुटने नहीं टेके। मुझे जो भला लगता था बेहिचक वही करती रही। वह भी अपना मेरुदंड सीधा रख कर। बिलकुल तना हुआ! सिर उठा कर! न मैं किसी का खाती थी, न पहनती थी। मैं चाहे जो करूँ, जिसके भी साथ सोऊँ, किसी के बाप का क्या?
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- इतनी-सी बात मेरी !
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- बंगाली पुरुष
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- सुन्दरी
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- बंगाली नारी : कल और आज
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- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
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- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
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- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
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- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
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- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं