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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :235
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :978-81-8143-985

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...


मैंने उसे समझाया, 'प्यार क्या विख्यात या अख्यात देख कर किया जाता है?'

मगर मेरी बात कौन सुने? मेरा वह प्रेमी कुछ देर रोया-धोया जरूर, मगर अगले ही पल उसने दाँत किटकिटाते हुए, मुझे 'सूअर की औलाद' तक कह डाला। मर्द का हुक्म न माने तो मर्द नोच-खसोट कर जान ले सकता है। पुरुष को प्यार में भी उतना सुख नहीं मिलता, जितना नियन्त्रण पाने में! एक तरफ़ उसकी ईर्ष्या, हीन मानसिकता थी और दूसरी तरफ़ मेरी दृढ़ता थी। इसने हम दोनों के रिश्ते को एक झटके में विच्छेद की कगार पर खड़ा कर दिया। प्यार के लिए ज़िन्दगी उत्सर्ग कर देना मेरे लिए सम्भव नहीं है। मेरे सामने विशाल दुनिया पड़ी है, किसी छोटे-मोटे दायरे में मैं शौकिया अपने को कैद कर लूँ, यह नहीं हो सकता। इसके अलावा प्रेम, पैशन, सेक्स की सूक्ष्म से सूक्ष्म कला को अगर छोड़ दिया जाये तो पूर्व-पश्चिम के तमाम मर्द एक ही मानसिकता के सामने आत्मसमर्पण करते हैं। वे लोग शायद औरत से भी ज़्यादा विराट कुछ समझते हैं, ज़्यादा बड़ा समझते हैं। मैं इस झूठ से भला क्यों समझौता करने लगी?

उसके बाद फिर कई एक सालों की निःशब्दता! पुरुषहीन जीवन! लिखाई-पढ़ाई, दर्शन, कला, दोस्ती, सैर-तफरीह में डूबे रहना। फिर एक वक़्त आया, जब सुदूर यरोप में रहते-सहते, बीच-बीच में बंगाल आने-जाने की शुरुआत! प्रिय शहर! प्रिय लोग! यह मन प्यार-प्रीति से भरा-भरा रहता है। चूँकि दिल के दरवाजे खुले ही रहते हैं इसलिए फिर एक बंगाली नौजवान, आँधी-तूफान की तरह अन्दर दाखिल हुआ। यह प्रेम. मेरी किशोर उम्र जैसा था। न स्पर्श, न सोना! उन दिनों मैं हार्वर्ड विश्वविद्यालय में रिसर्च कर रही थी। लेकिन, मन उसमें कहाँ जमता? उन दिनों मन में बांग्ला, सपनों में बांग्ला। उम्र में मुझसे बीस वर्ष बड़ा, फिर भी चन्द दिनों में ही मैंने उससे तू-तुकार और प्रेमी का रिश्ता बना लिया। प्यार ई-मेल पर, प्यार फोन पर! हर दिन केम्ब्रिज-कलकत्ता, कलकत्ता-केम्ब्रिज! प्रतिदिन 'गुड मॉर्निंग, प्रति रात 'गुड नाइट' ! प्रेम कविता के शब्द-शब्द, अक्षर-अक्षर में फूट पड़ा। ज़िन्दगी प्रेम के ज्वार में बहने लगी। जिस दिन उस प्रेमी से मिलने के लिए दौड़ी चली आयी, मेरा तन-बदन उस मिलन की कल्पना से थरथरा रहा था। प्रेमी आया। उसने चुम्बन के नाम पर मेरे होठ काटे, दुलार के नाम पर छातियाँ नोची-खसोटीं। उसके बाद गालों पर चिमटी काटते हुए 'टा-टा' कह कर चला गया। बस, इतना-सा ही था उसका प्यार! मैं अचरज से मुँह बाये उसे देखती रही। मेरा फ्रांसीसी प्रेमी मुझे पंखों की तरह हल्का-फुल्का स्पर्श करता था, लेकिन यह कैसा स्पर्श? जिस समाज में औरत को सेक्स-सामग्री के अलावा और कुछ भी नहीं समझा जाता, वहाँ ऐसी हिंस्रता ही तो स्वाभाविक बात है। इसके बावजूद, प्रेम था कि कोई बाँध, कोई अवरोध मानने को राज़ी नहीं हुआ। मैं आकुल-व्याकुल हो कर उस प्रेमी का इन्तज़ार करने लगी। नहीं, दिन-रात पागल किये रखनेवाला प्रेम वह नहीं था। वह शाम या सुबह के वक्त, थोड़ी देर के लिए आता था। सुना है कि शहरी संस्कृति में परकीया प्रेम में यही नियम प्रचलित है। चूँकि मैं प्यार को शाश्वत प्यार मानती हूँ इसलिए इस अपने-पराये की इस शहरी व्याख्या पर अतिशय विस्मित होती रही। यह देख कर तो मैं स्तब्ध रह गयी कि इतने अर्से से मुझे प्रेम के जल में आकण्ठ डुबोये रखने के बावजूद मेरा प्रेमी ऐसा गनाह करने में जरा भी नहीं हिचकिचाया जो हरगिज़ माफ़ी के लायक नहीं था। वह यह सच्चाई छिपाता रहा कि वह उत्थानरहित है।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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