लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
पूँजीवादी शक्तिवाले मुस्लिम राज्यों को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते रहे। आम जनता को अज्ञता और अलौकिकता में, बड़े कौशल से डुबाये रख कर, स्वार्थसिद्धि की यह व्यवस्था सम्भव हुई। मुस्लिम शासकों के अनाचार, व्यक्तिस्वार्थ, अदूरदर्शिता ने अधिकांश मुस्लिम राज्यों को अभी भी आलोकवर्ष से दूर हटाये रखा है। यह कहना चाहिए कि इन देशों में मानवाधिकार, मानवता, औरत का अधिकार, गणतन्त्र, वाक्-स्वाधीनता का अस्तित्व, प्रायः नहीं है। वहाँ जो कुछ घट रहा है, उसका प्रभाव विभिन्न देशों के अल्पसंख्यक मुस्लिम इलाकों में भी पड़ा है। इसके फलस्वरूप इन्सान, धर्मनिरपेक्ष होने के बजाय कट्टरवादी हो उठा है। इसके अलावा मुस्लिम देशों में वृहद् पराशक्ति के अहम् के बम-विस्फोट ने मुस्लिम समाज के नौजवानों को पथभ्रष्ट करके, कट्टरवादी राह पर क़दम बढ़ाने में मदद की है। कम्युनिज़्म के पतन ने भी इन्सानों को पथ-भ्रमित किया। उन लोगों ने आश्रय के रूप में धर्म को ही जाना-माना और पहचाना।
धार्मिक कट्टरवादी, सिर्फ रुकावट ही नहीं बने, मेरे कंठरोध के लिए विशाल शक्ति साक्षात् खड़ी है। मन्दबुद्धि धर्मान्ध लोग विधायक होने के बावजूद, खुलेआम मेरी हत्या की धमकी देते हैं। लॉ-बोर्ड का प्रधान होते हुए भी, मेरे सिर की क़ीमत घोषित करते हैं। मेरी हत्या करके, फाँसी तक चढ़ने को आमादा हैं। समूचे देश के शुभबुद्धिसम्पन्न लोग, उन लोगों को देख-देख कर छिःछि: करते हैं। लेकिन वही चालाक लोग, जिन लोगों को हम प्रगतिशील के रूप में जानते हैं, बेहद पंडित मुद्रा में कहते हैं कि मुझे इतनी अतिशयता नहीं करनी चाहिए, मुझे ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए, जो दूसरों के दिल की अनुभूतियों, भाव-आस्थाओं को ठेस पहुँचायें। तब वे आम जनता को ज़्यादा प्रभावित कर पाते हैं और उस वक्त व लाग हा प्रगति की विरुद्ध-शक्ति के रूप में, कट्टरवादियों से भी दुगने ज़्यादा भयंकर हो उठते हैं। अतिशयता न करने का फ़तवा सिर की कीमत के फतवे से कहीं ज़्यादा खतरनाक होता है। सिर के मोल का फ़तवा दिया गया हो, तो किसी दिन अचानक खट से क़त्ल हो जाना पड़ेगा। अतिशयता न करने का फ़तवा देने का मतलब है, बाकी ज़िन्दगी मुझे जुबान बन्द करके रहना पड़ेगा। एक दिन की यन्त्रणा के मुक़ाबले दीर्घ दिनों की यन्त्रणा निश्चय ही भयावह होती है।
मैं अगर नारी-विरोधी, दो प्रधान शक्ति-धर्म और कट्टरवाद के खिलाफ़, जुबान खोलती हूँ, तो धार्मिक और कट्टरवादी लोगों की नज़र में वह अतिशयता है और अपने को शांतिप्रिय कहने वाले साहित्यकार भी इसे अतिशयता मानते हैं। ये वही लोग हैं जिनका विश्वास है कि कट्टरवाद और नारी-स्वाधीनता, दोनों ही समाज में साथ-साथ अवस्थित रहेंगे और इन दोनों में कभी कोई टकराव नहीं होगा। अगर टकराव हुआ तो दोष ज़रूर औरत का ही होगा। वे लोग दूध-केला खिलाकर, कट्टरवाद नामक विषधर साँप को पोसे रखने का भाषण देते हैं। आँखों के सामने ही एक साँप से लाखों साँप जन्म ले रहे हैं, लेकिन डर से सिमटे-सिकुड़े रहने, जुबान बन्द किये, साँस रोके जीते रहने को ये लोग ‘अतिशयता न करना' मानते हैं।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
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- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं