लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
राष्ट्र के दाय-दायित्व और नागरिक अधिकार के बारे में फ्रांसीसी दार्शनिकों की सोच-धारणाओं ने साधारण जनता को इस हद तक प्रभावित किया कि फ्रांस क्रान्ति जैसी आश्चर्यजनक घटना भी एक दिन घट गयी। इन्सान के अधिकार क़ानून के तौर पर कलमबन्द कर दिये गये। उधर, अमेरिका जैसे नये देश में भी परिवर्तन का ज्वार उठने लगा था। बहरहाल, उन दिनों स्वाधीनता आन्दोलन कामयाब हुआ, गणतन्त्र प्रतिष्ठित हुआ, समानाधिकार का संविधान भी रचा जा चुका, लेकिन क्रीतदास प्रथा, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, पुरुषतन्त्र-सभी कुछ बहाल तबीयत विराज करते रहे। जिन प्रथाओं, वादों, तन्त्रों में काले इन्सान, दरिद्र और नारी के लिए कोई अधिकार स्वीकार नहीं किये गये।
पुरुष ने इसी ढंग से समूची दुनिया में अपने अधिकारों को 'मनुष्य का अधिकार' घोषित किया। किसी भी क्रान्ति ने, किसी भी संविधान ने, किसी भी क़ानून ने नारी के पक्ष में जूं तक नहीं किया। नारी को इन्सान समझने जैसा मन, बड़े-बड़े वरेण्य क्रान्तिकारी या बुद्धिजीवी लोगों के पास भी नहीं था। पुरुषों के लिए 'अधिकार' की व्यवस्था की गयी। पुरुष को अपनी बात कहने, वोट देने, वोट में खड़े होने, सोचने-समझने, आज़ादी पाने का अधिकार घोषित किया गया। नारी के लिए 'दायित्व' की व्यवस्था की गयी। घर-संसार सँभालने, पुरुषों को सुख-शान्ति देने, सन्तान पैदा करने, सन्तान वगैरह का लालन-पालन करने का दायित्व! एक सदी, दो सदी, कई-कई सदियाँ गज़र गयीं। नारी को जिस कुएं में फेंक रखा गया, वह उसी कुएँ में पड़ी रही। उधर देश-देश में तथाकथित गणतन्त्र की चकाचौंध बढ़ती रही। रंग-ढंग बदलते रहे, स्वाधीनता और अधिकार पुरुष की व्यक्तिगत सम्पत्ति बन गये। लेकिन हैरत है किसी परुष या महापुरुष ने अपनी जबान से नारी अधिकार का उच्चारण नहीं किया। हाँ, दो-एक जनों ने यह ज़िक्र उठाया ज़रूर। मगर अन्त में नारी को ही उठ कर खड़ा होना पड़ा। अपने अधिकार वसूल करने के लिए नारी को ही खून बहा कर लड़ना पड़ा। वोट के अधिकार के लिए, पश्चिम की नारियों को सालों-साल आन्दोलन करना पडा। तब जाकर उसे कामयाबी मिली। लेकिन पश्चिम की नारी-सफलता का अर्थ, व्यापक अर्थ में नारी का कामयाब होना नहीं है। इस दक्कीसवीं सदी में ऐसे अनेक देश हैं, जहाँ नारी को वोट देने का अधिकार नहीं है। नारी आज भी, राजनीति, शिक्षा, स्वास्थ्य-सभी क्षेत्रों में विषमता की शिकार है। अपने प्राप्य अधिकारों से, पूर्णतया वंचित है।
उपनिवेशवाद-विरोधी जातीयतावादी आन्दोलन के प्रतिभू लोग, जिन्होंने नारी को ठीक किस नज़र से देखा, नारी की नागरिकता के सवाल पर, उनके सोच-विचार का रंग-ढंग क्या था? औपनिवेशिक शक्ति के साथ जब संघात शुरू हुआ, तो उस शक्ति के सांस्कृतिक वजन की तुलना में भारतीय-संस्कृति कालिमा-युक्त गंगाजल में नहाई हुई, शुद्ध पवित्र है-यह समझाने के लिए भारतीय नारी को घर-गृहस्थी के क्षट जगत में, पहले से भी ज़्यादा कैद झेलनी पड़ी। जो संस्कृति नारी-स्वाधीनता को चूर्ण-विचूर्ण करने वाली संस्कृति थी, जातीयतावादी लोगों ने उस संस्कृति की रक्षा का अहम दायित्व भारतीय नारी पर ही लाद दिया। उन्नीसवीं शती के आखिरी चरण से ले कर बीसवीं शती के पहले चरण तक ऐसी ढेरों किताबें प्रकाशित होती रहीं, जिनके जरिये यह समझाया गया कि औरत की जगह घर में है, बाहर नहीं। बाहर की जगह पुरुष की है, नारी की नहीं। बाहर की दुनिया में शक्ति और साहस की ज़रूरत है। बाहरी दुनिया परिश्रम, संग्राम की है, युद्ध की है, राजनीति की है, वहाँ पुरुष ही शोभा देता है नारी नहीं। नारी नरम होती है, नारी भंगुर होती है। नारी डरपोक और बुद्ध होती है। 'आत्मविस्मृति' और 'आत्मत्याग'-इन दोनों चीज़ों के सहारे नारी को संसार-धर्म का पालन करना होगा। इससे ज़रा भी इधर-उधर नहीं चलेगा। इधर पुरुषों के लिए दो गुण बेहद जरूरी हैं-'आत्मनिर्भरता' और 'आत्मगौरव'। ये दोनों गुण अगर नारी में हों तो घर-द्वार रसातल में चला जायेगा। समाज नष्ट हो जायेगा और जाति का सर्वनाश हो जायेगा।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं