लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
सप्तमी ने जवाब दिया, 'हम लोगों में एक बार शांखा-सिन्दूर पहनने के बाद हम इन्हें न फेंक सकती हैं, न उतार सकती हैं।'
'तो तुम तलाक़ क्यों नहीं दे देती?' मैंने पूछा।
'हमारे यहाँ कोई तलाक़ नहीं दे सकती।'
'कौन कहता है, नहीं दे सकती, खूब दे सकती हो। तुम्हारे पति से तुम्हारा तो तलाक नहीं हुआ, लेकिन तुम्हारा पति तो दूसरी शादी किये बैठा है। तम लोगों में अगर तलाक न हुआ हो तो दूसरी शादी करना भी तो कानूनी तौर पर निषिद्ध है, यह तुम जानती हो?'
सप्तमी मेरी बात ठीक-ठीक समझ नहीं पायी। मुझे उसे दुबारा समझाना पड़ा कि यहाँ के हिन्दू कानून के मुताबिक औरतों को तलाक़ देने का हक़ है और किसी भी औरत या मर्द को एक से अधिक पति या पत्नी रखने का अधिकार नहीं है। लेकिन नहीं, सप्तमी ये सब क़ानून नहीं जानती। वह धाराप्रवाह कई-कई पुरुषों के नाम गिना गयी, जो दो या तीन बीवियों के साथ, एक ही घर में रहते हैं।
'कहाँ?' मैंने पूछा।
'सोनारपुर, सुभाषग्राम सुन्दरवन में!'
सप्तमी में मैंने एक बात और गौर की है। जब वह अपनी किसी बात का विश्वास कराना चाहती है, तब फट् से अपनी कलाई में पहने शांखा छूते हुए और दूसरे हाथ से चिमटी काटकर कहती है, 'मैं अपने पति की क़सम खाकर कहती हूँ, दीदी...'
सप्तमी के लिए उसका शांखा बेहद पवित्र चीज़ है। इसे वह हर हाल में पहने रहना चाहती है। जिस दिन उसे यह उतारकर फेंकना पड़ा, वह दिन उसके लिए ज़िन्दगी का सबसे भयावह दिन होगा।
मैंने उससे हँसकर कहा, 'तुम्हारे पति ने किसी दिन तुम्हारी खोज-खबर ही नहीं ली। तुम्हारी बदहाली के दिनों में कभी, किसी तरह की मदद भी नहीं की। तुम्हारी दोनों बच्चियाँ तो यह जानती भी नहीं हैं कि पिता कहते किसे हैं। ऐसा आदमी ज़िन्दा रहे तो क्या, न रहे, तो क्या?'
'नहीं, नहीं, मेरा पति जहाँ भी रहे, मैं मनाती हूँ कि वह ज़िन्दा रहे।'
'क्यों?' मैंने सवाल किया।
'मैं शांखा-सिन्दूर में ही मरना चाहती हूँ।' सप्तमी ने जवाब दिया।
शांखा-सिन्दूर में मरी, तो सप्तमी सीधे स्वर्ग जायेगी।
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