लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
यह सुन कर, गाँव की औरतों के मुकाबले मुझे शहरी औरतों पर तरस आता है। उन औरतों का विश्वास है कि जो औरतें पढ़ी-लिखी और कॉलेज-विद्यालय के डिग्रीयाफ्ता दो-चार परुष मित्रों से हेल-मेल रखती हैं, वे लोग आज़ादी के शीर्ष पर पहुँच गयी हैं। वे अपने हाथ-पैरों में पड़ी बेड़ियों पर नज़र नहीं डालतीं। वे यह नहीं समझतीं कि इस पुरुषतान्त्रिक समाज में जैसे पिछले ज़माने की औरतें यौन-सामग्री और बच्चे पैदा करने वाली मशीन थीं, आज भी वही की वही हैं। जिन औरतों को आधुनिकता की हवा लग चुकी है वे भी मर्दो की भोग की भूख बल्कि तीन गुना ज़्यादा बढ़ा देती हैं। इस शहर में आज़ाद औरतें सिन्दूर धारण करती हैं और पति की पदवी ग्रहण करके, खुद ही जानकारी देती हैं कि वे मर्द की व्यक्तिगत सम्पत्ति हैं। उनके पास पति नामक जो चीज़ है वह उनकी सुरक्षा है। वह सुरक्षा अगर भड़क जाये तो उस पर सामूहिक विपदा बरसने लगती है जो सुरक्षा अगर ढह जाये तो वह खुद भी ढह जाती है।
अर्थ उपार्जन से मेरा मतलब है, रुपये कमाने से भला क्या फायदा अगर अकेले खडे होने का मनोबल या साहस ही न जागे। मैंने ऐसी अनगिनत आत्मनिर्भर औरतों को देखा है, जो समाज के नारी-विरोधी सड़े-गले नियमों के सामने निर्विकार मुद्रा में सिर झका देती हैं। अपने अधिकारों के बारे में स्पष्ट राय रखना और उन्हें अर्जित करने के लिए सभी तरह का जोखिम उठाना, सभी पढ़ी-लिखी आत्मनिर्भर औरतों के लिए भी सम्भव नहीं है।
मैंने गाँवों की ऐसी अनगिनत निरक्षर-अनपढ़ औरतों को देखा है जो उच्च शिक्षित, शहरी दासी-बांदियों के मुकाबले कहीं ज़्यादा अधिकार बोध के साथ जीती हैं। किसी ने ज़रा-सी भी ऐसी-वैसी हरकत की, तो झट अपना आँचल कमर में खोंस कर, समूचे खानदान के नाम गाली-गलौज करके ही दम लेती हैं। बदन पर जरा-सी खरोंच लगी नहीं कि फटाफट लठैती पर उतर जाती हैं। अपना हक़ वसूल करने में वे औरतें उस्ताद हैं। बाकायदा युक्ति दे-दे कर बहस करती हैं। शहर में किसी भी औरत में इतनी हिम्मत नहीं कि वह मस्जिद में जा कर नमाज़ पढ़ आये। लेकिन अभी हाल ही में पश्चिम बंगाल के एक गाँव में गाँव की औरतें दल बाँध कर पहुंचीं जबर्दस्त बगावत की और मस्जिद में नमाज़ पढ़ आयीं।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं