लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
'अनुरणन' की तुलना में 'बॉन्ग कनेक्शन' कहानी की स्क्रिप्ट बेहतर है। लेकिन अत्यधिक अवास्तविकता और अतिशय कहानीपन ने फ़िल्म को नष्ट कर दिया है। 'बॉन्ग कनेक्शन' में भी वही किस्सा। अप्पू और ऐंडी, दो प्रधान पुरुष-चरित्र। एक जन कम्प्यूटर साइंस या सूचना तकनीक में अपना कैरियर गढ़ने के लिए नौकरी ले कर विदेश जाते हैं और बार-बार यह दिखाया जाता है कि वह दफ्तर के कामकाज में बेहद व्यस्त है। दूसरा शख्स विदेश से इस देश में आता है। और संगीत के क्षेत्र में वह तीखे भावावेग के साथ, संगीत रचने-गढ़ने में व्यस्त रहता है। इसमें दो प्रधान नारी-चरित्रों का क्या काम है? पुरुष की प्रेमिका बने रहना या महिला-मित्र! कामकाज से फुर्सत मिलती है तो वे लोग पुरुषों को संगति देती हैं, बेहद नशीला साथ देती हैं और लगातार देती हैं। वैसे ये दोनों प्रधान नारी-चरित्र जवान हैं, आग का गोला हैं, स्मार्ट हैं, आधुनिकतम पोशाकें पहनती हैं, चुस्त अंग्रेज़ी बोलती हैं। लेकिन, उनका परिचय एक ही है, भूमिका भी एक ही है! वे लोग पुरुष की प्रेमिका बनी रहती हैं। पुरुष देश और देश के अहम कामों में परम व्यस्त रहते हैं और औरतें पुरुष का प्रेम पाने में ही व्यस्त रहती हैं, तथा पुरुष-निर्भर लता बनने के लिए अपने को तैयार करने में ही व्यस्त होती हैं। भारतीय चलचित्र में मर्द और औरत की हमेशा यही भूमिका रहती है। लेकिन नये युग के नये वक़्त में, जब आधनिकता का डंका पीटते हुए फिल्म बनती है तो उम्मीद यही होती है कि औरत को साहसी, संघर्षशील, आत्मनिर्भर दिखाया जायेगा और उसे आधुनिक भूमिका में उतारा जायेगा। लेकिन कहाँ? जब बेहद कह-सुनकर पुराने पुरुषतान्त्रिक मूल्यबोध की फिल्में बनायी भी जाती हैं तब वे सब उतनी भयंकर नहीं होती जितनी भयंकर आधुनिकता की घोषणा करते.हुए मशहूर प्रोड्यूसर-डायरेक्टर आधुनिकता की परत में लपेटकर, प्राचीनपन्थी फिल्मों को ही आधुनिकता रूप में पेश करते हैं। वाकई, ये लोग आधुनिकता की सटीक संज्ञा बदलने में अच्छी-खासी क्रांति मचा रहे हैं।
आज के ज़माने में आधुनिक का मतलब है सिर्फ बाहरी रूप! सिर्फ़ बोली भर! चाहे जितनी भी आधुनिकता का वास्ता दिया जाये इन फिल्मों में आधुनिकता बिलकुल भी नहीं होती। जवान औरत-मर्दो की फैशनेबल जीवनचर्या दिखाते हुए उनकी मानसिकता वही पुरानी की पुरानी होती है। आधुनिकता पोशाकों में नहीं होती, बड़ी-बड़ी बोलियों में भी नहीं झलकती। आधुनिकता तो चिन्तन-मनन, दिमाग, मानसिकता में बसती है। बोध, विवेक, विदग्धता में झलकती है। 'बॉन्ग कनेक्शन' में भी अन्यान्य औरतें घर में खाना पकाने, परोसने और दिन-रात मर्दों की सेवा में ही व्यस्त रहती हैं। नयी औरतें भी क्या उसी राह पर अपने को समेट रही हैं? या उन लोगों को उसी राह पर सिमटने को लाचार किया जा रहा है?
असमकामी औरत-मर्द परस्पर के प्रति आकर्षण बेहद स्वाभाविक होता है। दोनों के बीच दोस्ती, प्रेम, आत्मीयता जुड़ जाये, यह भी स्वाभाविक है। लेकिन यह रिश्ता अगर अपने अस्तित्व का विसर्जन दे कर जोड़ना पड़े तो वह रिश्ता कभी भी स्वस्थ नहीं होता। स्वस्थ रिश्ता तो वही होता है जिसमें एक व्यक्ति, इन्सान के तौर पर ज़्यादा मूल्यवान हो और दूसरा व्यक्ति कम मूल्यवान न हो। स्वस्थ रिश्ता वह होता है जिस रिश्ते में किसी का अधिकार ज़्यादा और किसी का अधिकार कम न हो और दोनों में से, किसी की किसी पर अर्थनैतिक निर्भरता न हो। अगर ऐसी आर्थिक निर्भरता एक-दूसरे पर रहेगी तो एक ऊपर होगा, दूसरा नीचे। अगर यह स्थिति रही तो एक बेहद 'पावरफुल' रहेगा और दूसरा 'पावरलेस'। अगर ऐसा हुआ तो आपस में असन्तोष होगा, समझौता होगा।
हमारा कला-साहित्य पुरुषतन्त्र को हमेशा से 'तोला' यानी 'हफ्ता' दिये जा रहा है। अब और कितने समय तक, औरत के अधिकारों को दबाये रख कर, उन लोगों को 'सामग्री' बनाकर, कलाकार-साहित्यकार अपने आधुनिक होने का दावा करते रहेंगे? सच्ची, मूर्खता का कहीं कोई अन्त नहीं है! सिर्फ और सिर्फ इसी महादेश में ही शायद ये तमाम धारणाएँ, महासमारोह से राज करती रहती हैं।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं