लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
इस बिन्दु पर यह सोचने की कतई ज़रूरत नहीं कि यह रिश्ता प्रेम-महब्बत में परिणत होगा या नहीं। ऐसा माहौल, ऐसे पलों का सृजन किया गया है कि पुरुष अगर हल्के-से भी छू लेता तो वह लड़की बिछ जाती। कमजोर फिल्म-स्क्रिप्ट का यही नियम है। बार-बार चौंकाने की कोशिश। हर पल साँस रुकने लगती है। देखो-देखो, लगता है, वह बोलने ही वाली है-'आई लव यू' ! लेकिन वह यह डायलॉग नहीं बोलती। उसके साथ बस सोने ही वाली है लेकिन नहीं सोती। रात को जब वे दोनों जन अपने-अपने कमरे की ओर जाने लगते हैं, तो दरवाज़े तक पहुँचकर एकदम से ठिठक जाते हैं। वह औरत प्यासी निगाहों से देखती है। लगता है, अपने-अपने कमरे में न जा कर वे दोनों किसी एक कमरे में समा जायेंगे। लेकिन नहीं, ऐसा भी नहीं हुआ। उस रात न सही, किसी अन्य रात मिलन हो जायेगा, इसकी अमिट सम्भावना बची रहती है। राहुल अपनी प्यारी बीवी नन्दिता को जिसे वह वजह-बेवजह फोन करता रहता है, यह नहीं बताता कि अमित की बीवी, प्रीति, पहाड़ पर उसके पास आयी है। प्रीति भी वहाँ पहुँचने से पहले या जाते हुए रास्ते में उसे कोई सूचना नहीं देती और वहाँ पहुँचकर भी वह नन्दिता को यह नहीं बताती कि वह राहुल के पास जा रही है। अस्तु, राहुल और प्रीति के बीच निश्चित रूप से सीधी-सादी दोस्ती का रिश्ता नहीं था और इस बारे में जो कानाफूसी हई, जो नफ़रत मिली, वह प्रीति को मिली। यह सब कुछ भी अप्रत्याशित नहीं था। भारतीय फ़िल्मों में परायी औरत से किसी शादीशुदा पुरुष से प्रेम या यौन सम्बन्ध हो जाने के बाद पुरुष को अपनी बीवी से माफी मिल ही जाती है। यह भी कोई नयी बात नहीं। औरतें क्षमा-सुन्दर निगाहों से पूरा केस देखती हैं। और पति को बड़े प्यार से अपने गले लगा लेती हैं। ('अनुरणन' में यह गले लगाने का मामला, ज़रा अलग ढंग से घटता है। पति चूँकि अब ज़िन्दा नहीं है। नन्दिता 'गले लगाने का काम पति की मित्र या होने वाली प्रेमिका, प्रीति को गले लगाकर करती है।) इस किस्म की कहानी मुद्दत से दिखायी जा रही है। कुल मिला कर बात इतनी-सी है कि इस समाज के पुरुषों की 'पॉलीगैमी' को क़बूल करने के लिए यह सब एक आन्दोलन के अलावा और कुछ भी नहीं है।
इससे पहले ऋतुपर्ण की 'दोसर' प्रदर्शित हो चुकी है। आजकल, इसे क़बूल करना, ज़रा ‘टफ' हो गया है, इसलिए किसी एक को मरना पड़ता है। 'दोसर' में औरत मरती है, 'अनुरणन' में मर्द। कोई मर जाता है, तो दर्शकों की हमदर्दी हहराकर बढ़ जाती है इसलिए परकीया को सम्भालने में सुविधा हो जाती है। आजकल आधुनिकता यह दिखाकर समझायी जाती है कि औरत, पति को माफ करके गले लगाने से पहले, थोड़ा-बहुत मान दिखाती है या ज़रा गुस्सा दिखाती है। खैर, माफ़ कर देने के अलावा, परनिर्भर औरतों के लिए और कोई उपाय भी क्या है? आजकल
पुरुष का विवाहेतर प्रेम और सेक्स को और गहराई से स्वीकार करने का मन तैयार करने के लिए आजकल पुरुष प्रोड्यूसर और डायरेक्टर ढेर-ढेर रुपये और बुद्धि खर्च करके पूरा दिल उँडेलकर, फिल्मों पर फिल्में बना रहे हैं और लोगों की वाहवाही बटोर रहे हैं।
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- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
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- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
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- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं