लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
हत्या के माध्यम से औरतों को सैकड़ों झमेलों और उपद्रवों से, निर्यातन और निष्पक्षण से सुरक्षा देना-यह आज की रीति नहीं है। यह तो सालों से ही प्रचलित थी। सुदीर्घ ज़माने से औरतों को यह सबक मिलता रहा है कि उनका ज़िन्दा न रहना ही इस समाज में उन लोगों के लिए सबसे बड़ी सुरक्षा है। अंग्रेजों ने तो अपने शासनकाल में ही कन्या-हत्या के इलाके चिन्हित कर दिये थे। सन् 1805 में सौराष्ट्र के जडेजा राजपूतों में कन्या-शिशु-हत्या का चलन था। यह रीति उन्होंने ही चलायी थी। उन दिनों पर्वी उत्तर प्रदेश में एक गाँव हआ करता था। उस गाँव में कोई कन्या-शिशु थी ही नहीं। सन् 1808 में बड़ौदा के शासक, अलेक्जेंडर वॉकर ने सभी सम्प्रदायों के प्रधान को सम्मन भेजकर यह हुक्म दिया कि वे लोग मुचलका लिखकर दें कि कन्या-शिशुओं की हत्या नहीं की जायेगी। सन् 1898 में सरकार ने कन्या-शिशु की हत्या को अपराध घोषित कर दिया। कन्या-शिशु-हत्या बन्द करने के लिए कानून भी बनाया गया था। लेकिन बाद में किसी राजनैतिक कारणवश यह क़ानून वापस ले लिया गया।
भारत में उसी उन्नीसवीं शती में कन्या-शिशुहीन कई-कई गाँवों के नामों का उल्लेख मिलता है। कई इलाकों में 343 लड़के थे, 54 लड़कियाँ! बम्बई में 1838 लड़के थे और लड़कियों की संख्या 603 थी। अगर ज़रा और पीछे मुड़कर देखें तो क्या मिलेगा? कन्या-शिशु-हत्या तो शायद वैदिक युग से ही प्रचलित थी। यह अथर्ववेद का कहना था-'कन्या-सन्तानों को कहीं और जन्म लेने दो, यहाँ पुत्र-सन्तानों को ही जन्म लेने दो। पुत्र तो सम्पद होता है, पुत्र आशीर्वाद होता है। वृद्धावस्था में पुत्र, पिता को बल देगा। पुत्र पिता की मुखाग्नि करेगा इसलिए पिता स्वर्ग जायेगा। पुत्र ही पिता को नर्क से मुक्ति दिलायेगा।'
नारी की क्या भूमिका थी? नारी पुत्र-सन्तानों को जन्म देने के लिए होती है। नारी है ज़मीन, जिस ज़मीन पर पुरुष अपना वीर्य निक्षेप करेगा, पुत्र उत्पन्न होने के लिए! मनु ने कहा-नारी को दिन-रात पुरुष पर ही निर्भर करना होगा। उन्होंने कहा कि जब वह शिश होती है, पिता उसकी रक्षा करता है, जब वह यवती होती है तो पति, जब वह वृद्धा होती है, तो पुत्र! स्वाधीनता नारी के लिए कभी नहीं थी। नारी इसके योग्य थी ही नहीं।
पहले तो औरत को 'परनिर्भर' कहा गया। उसके बाद, उसे एक तरह से 'बोझ' बताया गया। लेकिन सच यही है कि आदिम युग से ले कर आज तक, औरत को पुरुषों की व्यक्तिगत सम्पत्ति बनाकर रखा गया है।
अस्तु, दीर्घकाल से कन्या-शिशु की हत्या करते आये और अब कन्या-शिशु का गर्भपात कराना कोई रीति के बाहर की बात तो नहीं थी। यह काफी कुछ झाड़-झंखाड़ साफ करने जैसा था। पुत्र उत्पादन के लिए सहेजी हुई कोख की माटी से लड़की को उखाड़ फेंकना। ऐसी पुत्र प्यासी जाति के लिए कन्या-हत्या, कोई अचरज की बात नहीं है।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
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- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं