लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
3. दीपा मेहता की 'वाटर' फ़िल्म देखी। असाधारण फ़िल्म है। उन्होंने धर्म का शासन, औरतों का दुर्भाग, वैधव्य की यन्त्रणा-कितनी खूबसूरती से फ़िल्माया है। कितना मर्मान्तक है वह दृश्य, जव आठ साल की बच्ची को विधवा का कोरा थान पहना दिया गया। उसे विधवा आश्रम में धकेल दिया गया। कैसा मार्मिक है, वह दृश्य, जव उसका बलात्कार करके, उसे नाव में फेंक रखा गया। नाव चलती जा रही है। दुनिया भी बल रही है, दुनिया की तरह ही निर्विघ्न और निश्चिन्त।
पाँच सौ वर्षों से विधवा-वृद्धाओं, यहाँ तक कि विधवा बालिकाओं को उस अंचल में ले जा कर फेंक दिया जा रहा है ताकि वे लोग जल्द से जल्द दुनिया से विदा हो।
'वाटर' फ़िल्म की घटनाएँ आज से लगभग सत्तर वर्ष पहले की हैं। इस फ़िल्म में काशी के किसी आश्रम में विधवा औरतों के जीवन की करुण कहानी फ़िल्मायी गयी है। उस ज़माने में औरतों पर जैसा निर्यातन चल रहा था, वैसा निर्यातन चलो आज नहीं है, लेकिन क्या कुछ भी नहीं है? जरा भी नहीं? यहाँ कलकत्ते की लिखी-पढ़ी, फैशनेबल औरतें तो यही जानती हैं कि 'भारतवर्ष की लड़कियाँ-औरतें वेहद आज़ाद हैं। हिन्दू औरतों जैसी आज़ादी दुनिया में किसी को, किसी दिन नहीं मिली।' विधवा-विवाह के पक्ष में कानून है, इसलिए फ़िक्र करने की कोई बात नहीं है। उन लोगों ने क्या काशी-वृन्दावन में एक बार झाँककर देखा है कि वहाँ कितनी सैकड़ों-हज़ारों औरतें दुर्भोग झेल रही हैं? उन लोगों ने कलकत्ता में ही घर-घर विधवाओं के खाने की पत्तल पर नज़र डाली है कभी?
ना! नारी-विरोधी-कुसंस्कार उस समाज से कभी नहीं मिटेगा, जिस समाज में औरत-मर्द के बीच समता की कोई संस्कृति नहीं है, जिस समाज में पुरुषतान्त्रिकता की जय-जयकार है।
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं