लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
|
7 पाठकों को प्रिय 150 पाठक हैं |
औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
2. मेरे घर के कामकाज में जो औरत हाथ बँटाती थी, वह लम्बी छुट्टी पर गयी है। घर में मैं अकेली हूँ। उस दिन अकेली ही घर का कामकाज निपटा रही थी कि अचानक चन्द महिला-मित्र आ गयीं। जिस थाली, कटोरी में उन लोगों ने डिनर खाया, जिस गिलास में पानी पीया, सब कुछ ही माँज-धो डाला। सिर्फ इतना ही नहीं, आगे बढ़कर घर के और भी कई-कई कामकाज निपटा दिये। अपने घर में पकाया हुआ खाना भी लायी थीं, दे गयीं। मेरी असुविधा का अन्दाज़ा लगाकर उन लोगों ने यथासाध्य मेरी मदद की, जैसा कि सच्चे मित्र करते हैं। दो दिन बाद मेरी घनिष्ठ महिला-मित्रों की तरह ही, चन्द घनिष्ठ पुरुष-मित्र भी आये। वे लोग समूचे फ्लैट में चलते-फिरते रहे, दारू पीते रहे। कुछ-कुछ खाते रहे, कुछ-कुछ गिराते-विखराते रहे। तमाम सामान इधर-उधर फैलाकर फ्लैट को नर्क बनाते रहे। जैसे ही मैंने सारा कुछ समेटने को कहा, वे लोग एकदम से आतंकित ही उठे। मैंने बेहद नरम लहले में कहा-'घर के कामों में हाथ बंटानेवाली औरत आजकल यहाँ नही है मैं भी बेतरह व्यस्त हूँ। तुम लोगों द्वारा फैलाया कूड़ा साफ करने की मुझे बिलकुल फुर्सत नहीं है।' इतना कहने पर भी उनकी हमदर्दी तो खैर मिली ही नहीं, बल्कि सबने ज़ोर का ठहाका लगाया, मानो मैं कोई मज़ाक कर रही हूँ। मैंने उन लोगों को समझाया कि मैं मज़ाक नहीं कर रही हूँ। मैं सच ही चाहती हूँ कि बिखरा हुआ सामान समेटकर, वे लोग जहाँ का तहाँ व्यवस्थित कर दें। उन दोस्तों को रसोई में ले जा कर मैंने कोशिश की वे अपने जूठे बर्तन खुद धो दें, मगर मैं नाकाम रही। उन पुरुष-मित्रों को लगा, जैसे मैं उन लोगों की बेइज्जती कर रही हूँ। वे लोग कमोड का ढक्कन उठाये बिना, पेशाब से समूचा टॉयलेट भिगोकर बिना फ्लश खींचे चले आते हैं। शिकायत करने पर खी-खी हँस देते हैं। ऐसा चरित्र ले कर वे लोग गृहस्थी कैसे चलाते हैं, मेरी समझ में नहीं आता। उन लोगों की बीवियों की हालत का अन्दाजा लगाकर मैं सिहर उठती हूँ।
लेकिन यही पुरुप समाज में 'शरीफ लोग' के रूप में जाने-माने जाते हैं। उन लोगों का खयाल है कि घर-द्वार की साफ़-सफ़ाई और व्यवस्था-सजावट औरतों का काम है। उन लोगों का काम है, फुर्ती करना, मौज करना, बैठे या लेटे रहना और हुक्म झाड़ना-यह लाओ, वह लाओ।
औरतें पुरुषतांत्रिक-सुविधाओं के कारण, अछूत के स्तर पर फेंक दी जाती हैं। पुरुषों के जूठे वर्तन, पुरुषों के कूड़े-करकट साफ़ करने की जिम्मेदारी, पुरुषों की दादी-नानी, माँ-काकी-मामी, बहन, भाभी, बीवी-प्रेमिका, सहेलियाँ और नौकर-चाकर तथा मेहतर पर है।
जब तक पुरुष की मानसिकता नहीं बदली जायेगी, समाज में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आयेगा। औरत-मर्द का रिश्ता मालिक-नौकर का ही रह जायेगा। मानव सभाज में अगर कोई वैषम्य है तो स्त्री-पुरुष, दोनों को ही मिटाना होगा। यह किसी एक का ही दायित्व नहीं है। मानव समाज में समता और स्वस्थता लाने के लिए औरत-मर्द, दोनों को ही इस काम का संकल्प लेना होगा, वर्ना पुरुष के दिमाग़ की अस्वस्थता अपने को राजा-वादशाह समझने और महिलाओं से अपने को उन्नत श्रेणी का समझने की बीमारी किसी दिन भी दूर नहीं होगी।
|
- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं