लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
|
7 पाठकों को प्रिय 150 पाठक हैं |
औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
वह भाषा धीरे-धीरे बीमार हो गयी। तीखी सर्दी में, ठण्डी बर्फ में भाषा जमती गयी। मैं अपनी छाती की गर्माहट दे कर उसे बचाती रही। दुश्मनों के शिविर में बैठी-बैठी भी उसकी सेवा-जतन करती रही। उन दिनों वह मेरी आत्मीय थी, बन्धु थी। वह मेरी माँ थी। कितने-कितने वर्ष गुजर गये, कितने-कितने लोग गुज़र गये। सीमा-पार, मेरी आँखों से ओझल हो गये। कितने-कितने लोग, कभी लौटकर आने तक की दूरी तक जा कर, बारी-बारी से कहीं खो गये। एक मैं ही अकेली पड़ी रही, सब कुछ खो कर, बिलकुल रीती! बिलकुल निःस्व! मेरे साथ और कोई नहीं है, कुछ नहीं है, सिर्फ भाषा है चूँकि मेरे पास, मेरे साथ भाषा है, इसलिए विदा लेकर जा चुके लोगों से, मैं मन ही मन बातें किया करती हूँ। चूँकि मेरे पास भाषा है, इसलिए चारों तरफ़ के खाँव-खाँव करते, निर्जन माहौल में, अकेलेपन का अहसास ज़ाहिर करने वाले दो-चार गद्य-पद्य तो लिख सकती हूँ। जब कष्ट-तकलीफ झेलती हूँ तो अपनी भाषा की छाती में मुँह दुबकाकर रो तो सकती हूँ। भाषा मेरे साथ है, इसलिए कोई तो है मेरे पास।
लेकिन भाषा तो चाहे जैसे भी हो, लोकालय चाहती है, देश चाहती है, गर्माहट चाहती है और हाँ जुबान चाहती है। भाषा के लिए ही मैं सात समुन्दर पार, आज यहाँ हूँ, भाषा को बचाने के लिए! अपनी भाषा को।
भाषा ने आज सूरज का चेहरा देखा है! आज वह सूर्यमुखी है।
भाषा आज खेत-मैदान, शाम-दोपहरी में खेल रही है। आज वह सुखी है। भाषा के तन-बदन से सीलन भरी काई धुल-पुछ गयी है। अब वह गंगा महानदी में तैर रही है। आज वह बहकर, बंगोप सागर तक आ पहुँची है। आज वह बंगोप सागर में तैर रही है।
मैं और मेरी भाषा लम्बे वर्षों से विदेश-भुंइ की थकानभरी पराधीनता को हटाकर यहाँ इस देश में, देश के पश्चिमी प्रान्त में, परम निश्चिन्त हैं। मैं और मेरी भाषा आज घर में हैं। अपने घर में सुरक्षित आश्रय में! जब मैं अपनी भाषा, जुबान पर लाती हूँ, जुबान पर मेरी माँ होती है। जब मैं अपनी भाषा को प्यार करती हूँ, मैं अपनी माँ को प्यार करती हूँ। अब, माँ नहीं रही। लोग कहते हैं कि माँ जाने कब तो आसमान के किसी कोने में तारा बन गयी है।
|
- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं