लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
प्रेमी का मन खुश रखना मुझे किसने सिखाया? पुराना कोई पाठ क्या अभी भी मेरे अन्दर कहीं घात लगाये बैठा है? कैंसर की तरह, यह शिक्षा, जीवन विनाशक शिक्षा, मुझे ध्वंस कर देती है। मौत को खींचकर सामने ला खड़ा करती है और समूचा जीता-जागता जीवन, उसके खुले हुए मुँह में घुसेड़ देती है। इधर प्रचंड प्राणशक्ति के साथ जीते हुए, दुनिया के तमाम धर्मों और कट्टरता के खिलाफ़ कुत्सित पुरुषतन्त्र, युद्ध और रक्तपात के विरुद्ध संघर्ष करते हुए, मानवता के लिए समूची दुनिया में संघर्ष करने वाली अनमनीय और समझौताहीन मैं! मैं ही अमानवीय पुरुष के आगे झुक जाती हूँ।
इसकी कोई युक्ति है मेरे पास? इस गलती, इस अधःपतन की कोई सफ़ाई है मेरे पास? बस, मुझे एक ही तसल्ली है। जब मेरी पीठ पर चाबुक पड़ती है, मेरा नशा उतर जाता है। मेरे लिए एक ही सांत्वना है कि उस वक्त उसे नीचा दिखाये बिना, मेरा नहीं चलता। पुरुष को झटककर, अपने सिर से उतारते हुए, मकड़े की तरह ज़िन्दगी को जकड़े हुए पुरुषों को धकेलकर, हटाते समय, मेरे मन और शरीर में असम्भव ताकत आ समाती है। प्रेम की जंजीर तोड़ कर, प्रेमी रूपी धूल-मिट्टी झाड़कर, मैं दुबारा उठकर खड़ी हो जाती हूँ। यूँ तनकर खड़ी हुई 'मैं' किसी वैषम्य से समझौता नहीं करती। यूँ डटकर खड़ी हुई 'मैं' पीछे मुड़कर नहीं देखती। यूँ गुरूर से खड़ी हुई 'मैं' को, कोई पुरुष नहीं पूछता। तनकर खड़ा प्राणी सिर्फ एक से ही प्रेम कर सकता है। सिर्फ एक से ही उसकी दोस्ती हो सकती है-वह एक है इन्सान! इस समाज का पुरुष, आज भी सिर्फ पुरुष है, अभी भी इन्सान नहीं बना। जितने दिनों वह 'इन्सान' नहीं बनता। उतने दिनों प्रेम, नैव नैव च!
पुरुष क्या कभी, इन्सान बनेगा? घोर पितृतन्त्र में डूबे रहकर, और कुछ मले हुआ जाये, ‘इन्सान' नहीं हुआ जा सकता। मेरे लिए 'इन्सान' शब्द का अर्थ है-जिसमें इन्सानियत हो, इन्सारियत की खूबियाँ हों, जो मानववाद में विश्वासी हो। मैं समझती हूँ, इन्सान वही है, जो अन्याय नहीं करता, जो इन्सान, इन्सान में फर्क नहीं मानता; सिर्फ़ लिंग की खासियत की वजह से अपने को उन्नततर जीव नहीं समझता। वही लोग सच्चे इन्सान होते हैं, जो औरत-मर्द में किसी छोटे से छोटा वैषम्य क़बूल नहीं करते; वैषम्य के विरुद्ध प्रतिवाद करते हैं, जंग करते हैं और अपनी ज़िन्दगी में वैषम्य को बूँदभर भी जगह नहीं देते। ऐसे लोग औरतों की बेइज्जती नहीं करते। औरत कह कर औरत की अवज्ञा करना तो पुरुष-चरित्र के अन्तर्गत आता है। पुरुष क्या 'चरित्रहीन' होना चाहेगा? प्रेमी के अन्दर से जब पुरुष निकल आता है, तब वह प्रेमी नहीं रह जाता। अपनी ज़िन्दगी में, मैंने यह हमेशा देखा है। प्रेम को पुरुष के बजाय इन्सान समझ लेने की ग़लती, मैंने हमेशा की है।
जो औरतें मेरी ही तरह प्रेम में विश्वास करती हैं, जो औरतें तकलीफ भोगती हैं, जो औरतें जान से जाती हैं, वे लोग भी अगर मेरी तरह उठकर खड़ी हो सकतीं, पुरुष रूपी धूल-मैल अपने बदन से झाड़कर, पुरुषहीन मानवीय जीवन गुज़ार पातीं, तो दुनिया बेहद खूबसूरत हो जाती। पुरुषतन्त्र से बाहर निकले बिना, कोई भी पुरुष, मैं सच कहती हूँ, औरत का रत्ती भर भी प्यार पाने लायक नहीं है।
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- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं