लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
अपने पर मुझे हद गुस्सा आता है। मैं, इस कदर सर उठाकर चलने वाली इन्सान! इस क़दर आज़ाद, आत्मनिर्भर, इतनी दृढ़, इतनी सबल-शक्तिमान, वही मैं प्यार में पड़ते ही इस क़दर कमज़ोर, दो-पाया जीव बन जाती हूँ। प्रेम में पड़ते ही बुद्धिदीप्त मैं भी किसी तूफानी हवा की झकोर में गुम हो जाती हूँ। बेहद बेवकूफ़, सिमटी-सिकुड़ी मैं, अपने प्रेमी की दखल में पड़ी रहती हूँ। मैं अपने पेट पर चढ़ी हुई मोटापे की पों को ले कर परेशान हो जाती हूँ अपने 'डबल चिन' के बारे में फिक्रमन्द हो उठती हूँ। मुझे अपनी नाक आँख-चेहरे की गढ़न अखरने लगती है, बालों का विन्यास फालतू लगने लगता है। उस वक्त मैं रेखा जैसी सूरत चाहती हूँ, सुस्मिता सेन जैसी फिगर चाहती हूँ। अपना कुछ भी, उस पल मुझे पसन्द नहीं आता। अपने प्रेमी की नज़र से अपने आपको परखती हूँ, क्योंकि उस पल मेरी अपनी आँखें नहीं होती। प्रेमी की निगाहों में, मैं असन्तोष भर देती हूँ। उसी असन्तोष के साथ, मैं अपने को निहारती हूँ। बार-बार निहारती हूँ। हज़ारों बार निहारती हूँ। जितना-जितना देखती हूँ, निस्तेज हो आती हूँ। जितना-जितना मैं देखती हूँ, उतना ही अपने प्रेमी को मुग्ध करने की तोड़-जोड़ में बेचैन हो उठती हूँ। भोथरे दिमाग़ से छिटककर निकलती रहती है-मूर्खता, हीनमन्यता, असहायता। प्रेम की आग मेरे आत्मविश्वास को जला कर ख़ाक कर देती है। उस वक्त मैं अपने को पहचान नहीं पाती। शिथिल, बेजान, नम्र! मैं जी-जान से कोशिश करती हैं कि मेरा रूप देख कर मेरा प्रेमी आहादित हो: मेरी खबियाँ देख कर खुश हो। मझे अपना कोई बोध नहीं रहता। मेरी सारी इन्द्रियाँ धीरे-धीरे अवश हो आती हैं, सिर बेकाम पड़ा रहता है, अन्दर दिमाग़ जैसी कोई चीज़ नहीं होती। अपने अन्दर की 'मैं' को मैं खोने लगती हूँ। मेरी निजता, मेरा अहंकार, मेरी दृढ़ता, मनोबल, मेरी शक्ति, साहस और प्रेम का तूफान टुकड़े-टुकड़े हो कर माहौल में उड़ता रहता है। जितना-जितना उड़ता रहता है, उतनी ही मैं दीन-हीन, जड़ वस्तु हो उठती हूँ और देखती हूँ, मेरा प्रेमी उनका ही शक्तिधर पुरुष हो उठता है। जितना-जितना मैं झुकती जाती हूँ, उतना ही वह उल्लसित होता है, उतना ही वह फूलकर कुप्पा हो आता है, उतना ही वह मोगालोमैनियेक, उतना ही वह 'इनक्रेडिबल हाल्क' हो उठता है, उतनी ही उसकी मुद्रा ऐसी हो आती है-'हाय ब्बास, हम तो क्या से क्या हो गये।'
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- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं