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जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


अमूर्त कला और सुस्वागतम

जिसमें बोरियत सहन का अपार धीरज है वही सच्चा संन्यासी है। साधारण मानव खीझ उठते हैं, ऊब में नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं, और अपनी नापसन्दगी बिना लक्षण-व्यंजना के प्रकट कर देते हैं। मैं रुपए में चालीस पैसा-भर संन्यासी हूँ। एक बोरियत को दो-तीन घंटा सहन कर सकता हूँ। उसके बाद मेरा मानव रूप प्रकट होने का खतरा खड़ा हो जाता है, जिसके अन्तर्गत कसकर सामनेवाले पर हाथ छोड़ दूँ तो आश्चर्य नहीं। अभी यह हालत है, पर कुछ दिनों बाद पूरी तरह से संन्यासी हो जाऊँगा और बोरियत को, चाहे वह लड़की के आकार में न भी हो, सहन करने की क्षमता उत्पन्न कर लूँगा। तब मैं अमूर्त कला पर, अस्तित्ववाद पर या जैसा प्राचीनकाल में होता था, आत्मा-परमात्मा के ऐतिहासिक रिश्तों पर बातें कर सकूँगा।

प्राचीन काल कई मामलों में वाकई में प्राचीन काल रहा है। लोगों में बोरियत सहने का संन्यासी गुण आम था। जंगल में बैठे हुए हैं और एक-दूसरे को समझा रहे हैं कि ब्रह्म क्या है और उसका माया के साथ क्या स्कैंडल चल रहा है वगैरह। जंगल का परिवेश, अपने-आपमें किसी दर्शन की तरह उलझा हुआ, शेर-चीतों का नियमित खतरनाक परिवहन-कब कौन अपने तीखे पंजों से आपके व्यक्तित्व का राष्ट्रीयकरण कर दे, कहा नहीं जा सकता और तिस पर खोपड़ी चाटनेवाली आत्मा और ब्रह्म की बातें! जरा कल्पना कीजिए! कितना घिचपिच अतीत है हमारा! इस धरती ने कब-कब कितनी बोरियत सही है।

वे आए और आते ही अमूर्त कला पर बातें करने लगे। वास्तव में वे एक ड्राइंग शिक्षक हैं, अपने को चित्रकार कहते हैं और उनकी जबान कलासमीक्षक की तरह चलती रहती है। समीक्षक भी वल्लाह क्या चीज होता है! ज्ञान का साक्षात् ट्रक, अनुभूतियों को समतल करनेवाला रोड-रोलर, सदैव गलत स्टेशन पर लगा हुआ एक रेडियो जिसे बन्द करना हमारे वश में नहीं। वे आए और कला की शब्दावली से मुझे रौंदने लगे। मैं स्वयं को उनके लालटेनी व्यक्तित्व के समक्ष निस्तेज अनुभव करने लगा, मगर मुस्कुराता रहा। एक ग्रहणशील श्रोता की तरह मुँह खोलकर मैंने उन्हें सुना, संन्यासी के धीरज से उन्हें सहा, झेला (ऐसे ही अनुभव को साहित्य में भोगा हुआ यथार्थ कहते हैं)। मंच पर कभी हो तो सुननेवाले पत्थर फेंकने लगें। मगर वह मेरा ड्राइंग रूम था, वे ड्राइंग शिक्षक थे, परदेश से आए थे, मैं क्या कह सकता था। जरा कल्पना कीजिए। उन्हें सरकार ने किसी काम से बुलवाया था। दाद देता हूँ उस सरकार को, जिसने उन्हें बुलवाया।

''कोई मीटिंग वगैरह है क्या आप लोगों की?'' मैंने पूछा। 
''नहीं, मीटिंग तो नहीं है। मुझे अकेले को ही बुलाया है। आज संचालनालय गया था तो साहब से मिला था। कहने लगे, कल ग्यारह बजे आइए, फिर आपको काम बता देंगे। तारीफ कर रहे थे, कहते थे-सुना, आप बड़े अच्छे चित्रकार हैं।'' उसने कहा।
''जानते हैं आपको या हो सकता है आपकी अमूर्त कला की प्रशंसा सुनी हो।''
''संचालनालयवाले तो नहीं जानते, पर शिक्षा मंत्री जानते हैं। मैंने अपने नगर में अपनी अमूर्त कला के चित्रों की प्रदर्शनी की थी तो उसका उद्घाटन शिक्षा मंत्री से ही करवाया था। भाषण में उन्होंने मेरी बड़ी प्रशंसा की थी।'' वह बोला।
मैं सोचने लगा कि तब कैसा रहा होगा। अमूर्त कला की प्रदर्शनी हो रही है, शिक्षा मंत्री भाषण दे रहे हैं-भाइयो और बहनो, मुझे आप लोगों ने अमूर्त कला की प्रदर्शनी के लिए, उद्घाटन के लिए बुलाया हैगा तो मैं आ गया हूँगा। बड़ी खुशी की बात हैगी और बड़े गर्व की बात हैगी कि आपके नगर में और खासकर हमारे डिपार्टमेंट में कैसे-कैसे रत्न पड़े हैं। एँ, बताओ ये हमारे भाई चित्रकार हैंगे बिचारे तो चित्र बनाते हैंगे तो कैसे अमूर्त। बड़े गर्व की बात हैगी हमारे लिए कि हमारे राज्य में आज अमूर्त चित्र बन रहे हैंगे। हमारे शहर में एक राधाकृष्ण का मन्दिर हैगा। बड़ा सुन्दर। मैं कभी भी घर जाऊँ तो वहाँ दर्शन को जरूर जाऊँ। बड़ी शान्ति मिलती हैगी। बड़ी सुन्दर मूरत हैगी राधाकृष्ण की। जयपुर से मँगवाई। तो जब कभी मूरत कला पर बात चलाई हैगी, तो मुझे वह राधाकृष्ण की मूरत जरूर याद आवे हैगी। मगर हमारे चित्रकार भाई अमूरत कला बनाते हैंगे, तो उससे भी बढ़िया बात हैगी। मगर एक बात कहूँगा कि मूरत बनाओ या अकूत, मगर भारतीय संस्कृति का हमेशा ध्यान रखो। यह बात हम ड्राइंग शिक्षक के लिए ही नहीं कह रहे, सभी शिक्षकों के लिए, चाहे वह भूगोल का हो, गणित का या विज्ञान का। भारतीय संस्कृति का हमेशा ध्यान रखो। हमारे ये चित्रकार भाई हैंगे छवि निकालते हैंगे। पेड़-पौधा, जानवर-चिड़िया, सूरज जो भी देखें उसकी छवि खैंच देते हैंगे। अच्छी बात है। खूब बनाओ छवि, मगर लड़कों की पढ़ाई का हर्जा न हो, इसका ध्यान रखो। सब काम टाइम-टेबुल से होना चाहिए। जैसे रेलें टाइम-टेबल से चलती हैंगी, वैसे स्कूल भी टाइम-टेबल से चलना चाहिए। अमूर्त कला भी टाइम-टेबल से चलनी चाहिए...

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