लेख-निबंध >> जीप पर सवार इल्लियाँ जीप पर सवार इल्लियाँशरद जोशी
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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...
''आप क्या सोच रहे हैंगे?'' उसने मुझसे पूछा।
मैं चौंका। मैं मंत्रीजी का भाषण सोच रहा था, मगर मैंने कहा, ''मैं अमूर्त
कला के विषय में सोच रहा हूँ।''
''जोशीजी, ऐसा है अमूर्त कला को लेकर आज कला-जगत् में बड़ी भ्रान्तियाँ हैं।
मैं अभी हर्बर्ट रीड की एक पुस्तक पढ़ रहा था। उसने बड़ी अच्छी बात कही है।''
और वह हर्बर्ट रीड छाँटने लगा। शिक्षा मंत्री के भाषण की जगह फिर से अमूर्त
कला ने ले ली।
कैसा है यह कला का संसार! अकादमी, शिक्षा मंत्री, कलासमीक्षक, ड्राइंग
शिक्षक, राधाकृष्ण की मूरत, नगरपालिका, अमूर्त कला, पोस्टर, कला-प्रदर्शनी,
बहसें, भाषण, रंग, आकार, रेखाएँ, शब्द और बोरियत। सब गड्ड-मड्ड। वही जंगल का
परिवेश जो प्राचीन काल में था, जहाँ संन्यासी बैठे, आत्मा-परमात्मा और
ब्रह्म-माया की बातें करते थे। वैसा ही जंगल, मगर बातें अमूर्त कला को लेकर।
विशाल कैनवास पर अनेक कार्टूनों का हुजूम एक-दूसरे के सिर पर चढ़ता हुआ।
एक-दूसरे को पंजे से नोचता हुआ। ड्राइंग मास्टर की प्रतिभा को टाइम-टेबल के
अनुसार खाता हुआ शिक्षा मंत्री। प्रदर्शनी में मूर्खता छिपाए खड़ा दर्शक,
प्रशंसा का चेहरा लिए स्नॉब्स, मुँह बिचकाता कलासमीक्षक, सब गड्ड-मड्ड!
वे शाम से रात तक मेरा सिर चाटते रहे। मेरा सिर था जो चटता रहा। घोड़ा होता तो
आवेश में हिनहिना उठता, टाँगें फटकारता, अपने बड़े-बड़े दाँतों से उसकी बाँह
काट लेता। वह मैं था जो सुनता रहा। मुझे लगा, मैं मूर्त से अमूर्त होता जा
रहा हूँ। मेरी नाक लम्बी होकर किचन में घुस गई। मेरे हाथ सड़क तक पहुँच गए और
राह चलती लड़कियों की कमर में डलने लगे। मेरा चेहरा अंडे की तरह गोल हो गया।
मेरे घुटने पेट की तरफ सिमटने लगे। मेरा मस्तिष्क टेबुल पर रखी प्लेट में सज
गया और मैं उसे लालची निगाह से देखने लगा। ऐसा प्रतीत हुआ मानो पास ही शिक्षा
मंत्री बैठे समझा रहे हैं कि हर दिमाग अन्ततः किसी टेबुल की शोभा बनता है।
दिमाग को सिर से निकाल पेट में डाल लेना ही जीवन है।
अमूर्त कला के चित्र बनानेवाला वह व्यक्ति चला गया। मैं जंगल से वापस आ गया।
तीसरे दिन मैंने उस शख्स को फिर देखा। मैं शिक्षा मंत्री के बँगले के पास से
जा रहा था। दिन के ग्यारह बज रहे थे। बँगले के बाहर चहल-पहल थी। मेरा अनुमान
है कि चहल-पहल करनेवाले वे सब लोग कहीं के शिक्षक और लेक्चरर थे। वे सब
व्यस्त थे, क्योंकि शिक्षा मंत्री की पुत्री का विवाह था। भूगोल के शिक्षक
जमीन समतल करने में लगे थे हिन्दी के लेक्चरर सुन्दर अक्षरों में
निमन्त्रण-पत्र लिख रहे थे, गृह विज्ञान की शिक्षिकाएँ मिठाइयाँ बना रही थीं।
वाणिज्य के लेक्चरर आलू-बैंगन खरीदकर ला रहे थे, इतिहास के प्रोफेसर शामियाना
तनवाकर कालीन बिछा रहे थे। सभी व्यस्त थे। बँगले के कोने में सफेद कपड़ा लिए
वह चित्रकार भी बैठा था, जिससे अमूर्त कला पर मेरी चर्चा हुई थी।
''यहां क्या कर रहे हो?'' मैंने उससे पूछा।
''इस कपड़े पर बड़े-बड़े अक्षरों में 'सुस्वागतम्' पेन्ट करना है।'' वह बोला।
''तुम्हें इसीलिए बुलाया है?''
''जी हां, सुतारी शिक्षक बल्लियाँ गाड़कर दरवाजा बनाने में लगे हैं। मुझे उस
पर यह 'सुस्वागतम्' पेन्ट कर लगाना है। इसके अलावा दरवाजे के दोनों ओर स्वागत
करती करबद्ध सुन्दरियों के चित्र बनेंगे। वह भी मैं ही बनाऊँगा।''
मेरी इच्छा हुई कि पूछूँ कि क्या तुम 'सुस्वागतम्' अमूर्त कला में लिखोगे,
मगर तभी शिक्षा मंत्री उधर आ गए। अमूर्त कला वाला वह विद्रोही कलाकार हाथ
जोड़कर खड़ा हो गया।
''कहो भाई, काम चल रहा हैगा ना! कल शाम तक दरवाजा बन जाए तो समझो सब
टाइम-टेबल से हो गया। तुम तो अमूर्त कला के चित्र बनाते हो ना! हमें याद है,
हमने तुम्हारी प्रदर्शनी का उद्घाटन किया हैगा। भई, चाहे 'सुस्वागतम्' अमूर्त
कला में बनाओ मगर लेटरिग साफ होना चाहिए कि दूर से नजर आ जाए। तब जाने
तुम्हारी अमूर्त कला कि जो देखे कहे-वाह क्या बढ़िया है!'' शिक्षा मंत्री ने
कहा, मगर तभी उनका ध्यान पास खड़े सचिव पर गया, ''क्यों, वे संगीत के शिक्षक
लोग आ गए या नहीं?''
''आ गए सर।'' सचिव बोला।
''तो उनसे बोलो, शहनाई चालू कर दें। विवाह का मौका हैगा, मंगलधनि शुरू हो
जाना चाहिए अब तक। हर काम टाइम-टेबल से नहीं होगा तो कैसे चलेगा?''
मैं धीरे में खिसक लिया, संगीत शिक्षकों ने मंगल-ध्वनि आरम्भ कर दी, पर
अमूर्त कला नियम के अनुसार वह जंगल-ध्वनि में बदल गई। शेर-चीतों की आवाजें और
दुम दबाए प्रतिभाशाली गीदड़ों की चीख-पुकार। उसी में ब्रह्म-माया पर बातें
करते साधु-संन्यासी। सब कुछ एक साथ, गड्ड-मड्ड, जैसा प्राचीन काल में होता
था।
यदि मैं चित्रकार होता और मुझे अमूर्त कला की समझ होती तब मैं कहीं ड्राइंग
शिक्षक नहीं होता, मैं एक बड़े कैनवास पर इस सारे मामले को रँग लेता। भीषण
जंगल, अमूर्त कला के चित्रों से दबा एक चित्रकार, माइक हाथ में ले भाषण देता
मंत्री, मुँह बाए खड़े श्रोता और कला-प्रदर्शनी के दर्शक, नाक-भौं सिकोड़े
कलासमीक्षक, ऊबा हुआ शरद जोशी, सुस्वागतम् का बोर्ड, शहनाई बजाते
संगीत-शिक्षक, मंत्री की बिटिया का ब्याह-सब गड्ड-मड्ड, एक-दूसरे में
धँसे-फँसे जैसे एक जगंल, जैसे एक कैनवास, जैसे एक सच्चाई।
मगर मुझे अमूर्त कला नहीं आती। जिन्हें आती है, वे बंगाली में सिर झुकाए
'सुस्वागतम्' का बोर्ड रँग रहे हैं।
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