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जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


'कभी भी बढ़ सकती हैं।'
'जी हां, बढ़ सकती हैं।'
'सुना, सारा खेत साफ कर देती हैं?'
'बिलकुल साफ कर देती हैं।'
'इस खेत पर छिड़काव हो जाना चाहिए।'
'जी हां, हो जाना चाहिए।'
'जैसा आप फरमाएँ।' छोटे अफसर ने नम्रता से कहा। फिर वे दोनों चुपचाप चलने लगे। 
'जैसी पोजीशन हो मुझे बताना, मैं हुक्म कर दूँगा।'
'मैं जैसी पोजीशन होगी, आराके सामने पेश कर दूँगा।'
'और सुनो।'
'जी, हुक्म।'

'मुझे चना चाहिए, हरा। घर ले जाना है। जीप में रखवा दो।' 
'अभी रखवाता हूँ।'
छोटा अफसर किसान की तरफ लपका।
'ओय क्या नाम है तेरा?'

किसान भागकर पास आया। छोटे अफसर ने उससे घुड़ककर कहा, 'अबे तेरे खेत में इल्ली है?'
'नहीं है हुजूर।'
'अबे थी ना, वो कहां गई?'
'हुजूर पता नहीं, कहां गई।'
'अबे बता कहां गई सब इल्ली?'
किसान हाथ जोड काँपने लगा। उसे लगा इस अपराध में उसका खेत जप्त हो जाएगा। छोटे अफसर ने क्रोध से सारे खेत की ओर देखा और फिर बोला, 'अच्छा खैर, जरा हरा-हरा चना छाँटकर साहब की जीप में रखवा दे। चल जरा जल्दी कर।'
किसान खेत से चने के पौधे उखाड़ने लगा। छोटा अफसर उसके सिर पर तना खड़ा था। इधर मैं और वह बड़ा अफसर चहलकदमी करते रहे, वह बोला, 'मुझे खेतों में अच्छा लगता है। यहाँ सचमुच जीवन है, शान्ति है, सुख है।' वह जाने क्या-क्या बोलने लगा। उसने मुझे मैथिलीशरण गुप्त की ग्राम-जीवन पर लिखी कविता सुनाई, जो उसने कभी आठवीं कक्षा में रटी थी। कहने लगा कि मेरे मन में जब यह कविता उठती है, मैं जीप पर सवार हो खेतों में चला आता हूँ। मैं बूट तोड़ते किसान की ओर देखता सोचने लगा-गुप्तजी को क्या पता था कि वे कविता लिखकर क्या नुकसान करवा देंगे।

कुछ देर बाद हम लोग जीपों पर सवार हो आगे बढ़ गए। किसान ने हमें जाते देख राहत की साँस ली। जीप में काफी हरा चना ढेर पड़ा था। मैं खाने लगा। वे लोग भी खाने लगे। एकाएक मुझे लगा कि जीप पर तीन इल्लियाँ सवार हैं, जो खेतों की ओर चली जा रही हैं। तीन बड़ी-बड़ी इल्लियाँ, सिर्फ तीन ही नहीं, ऐसी हजारों इल्लियाँ हैं, लाखों इल्लियाँ। ये सिर्फ चना ही नहीं खा रहीं, सब कुछ खाती हैं और निःशंक जीपों पर सवार चली जा रही हैं।

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