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जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


जीप पर सवार इल्लियाँ

इतना मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि चने के पौधे होते हैं, पेड़ नहीं होते। चने का जंगल नहीं होता है, खेत होते हैं। यदि खेत नहीं होते तो बताइए यह गीत कैसे बना है कि 'समधन तेरी घोड़ी चने के खेत में' यह पुष्ट प्रमाण है कि चने के खेत होते हैं। चने के झाड़ पर चढ़नेवाली बात सरासर गलत है, कपोल-कल्पना है। इससे आगे चने के बारे में मेरी जानकारी उतनी ही है, जितनी हर बेसन खानेवाले की होती है कि वाह क्या बात है आदि। मुझसे यदि चने पर भाषण देने के लिए कहा जाए, तो मैं कुछ यों शुरू करूँगा कि भाइयो, जिस तरह सूर्य मेरे मकान के बाजू उगकर उस बाजू डूब जाता है, उसी तरह चना भी खेत में जाकर आदमी अथवा घोड़े के मुँह में डूब जाता है। इतना कहकर मैं अपना स्थान ग्रहण कर लूँगा, यह भय बताकर कि समय अधिक हो रहा है। बात यह है कि मैं मुँह में पानी आ जाने के कारण अधिक बोल नहीं सकूँगा। चना मेरी कमजोरी है। यह कमजोरी मुझे ताकत देती है। सिर्फ खाते समय, बोलते समय नहीं।

पर इधर शहर के अखबारों में चने की चर्चा जरा जोर पर है। इन दिनों मौसम खराब रहा। हम तो घर में घुसे रहे। पर पता लगा कि बाहर पानी गिरा और ठण्ड बढ़ गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि शहर के आस-पास चने के खेत में इल्ली लग गई। अखबारों में शोर हुआ कि चने में इल्ली लग गई है और सरकार सो रही है वगैरह। एक अखबार ने चने के पौधे पर बैठी इल्ली की तस्वीर भी छापी, जिसमें इल्ली सचमुच में सुन्दर लग रही है। चना हमने भी कम नहीं खाया, पर देखिए पक्षपात कि तस्वीर इल्ली की छपी।

मैं इल्ली के विषय में कुछ नहीं जानता। कभी परिचय का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ। इल्ली से बिल्ली और दिल्ली की तुक मिलाकर एक बच्चों की कविता लिख देने के सिवाय मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ, पर लोग थे कि इल्ली का जिक्र ऐसे इतमीनान से करते थे, जैसे पड़ोस में रहती हो।

मेरे एक मित्र हैं। ज्ञानी हैं यानी पुरानी पोथियाँ पढ़े हुए हैं। मित्रों में एकाध मित्र बुद्धिमान भी होना चाहिए। इस नियम को मानकर मैं उनसे मित्रता बनाए हुए हूँ। एक बार विद्वत्ता की झोंक में उन्होंने बताया था एक नाम 'इला'। कह रहे थे कि अन्न की अधिष्ठात्री देवी हैं इला यानी पृथ्वी। मुझे बात याद रह गई। जब इल्ली लगने की खबरें चलीं, तो मैं सोचने लगा कि इस 'इला' का 'इल्ली से क्या सम्बन्ध? इला अन्न की अधिष्ठात्री देवी हैं और इल्ली अन्न की नष्टार्थी देवी। धन्य है। ये इल्लियाँ इसी इला की पुत्रियाँ हैं। अपनी ममी मादाम इला की कमाई खाकर अखबारों में पब्लिसिटी लूट रही हैं। मैं अपने इस इला-इल्ली ज्ञान से प्रभावित हो गया और सोचने लगा कि कोई विचार-गोष्ठी हो, तो मैं अपनी बुद्धि का प्रदर्शन करूँ। पर ये कृषि-विभाग वाले अपनी गोष्टी मे हमें क्यों बुलाने लगे। इधर मैं अपने ज्ञानी मित्र से इल्ली के विषय में अधिक जानने हेतु मिलने को उतावला होने लगा। मेरी पुत्री ने तभी इल्ली-सम्बन्धी अपने ज्ञान का परिचय देते हुए अपना 'प्राकृतिक विज्ञान' : भाग चार देखकर कहा कि इल्ली से तितली बनती है। तितली जो फूलों पर मँडराती है, रस पीती, उड़ जाती है। मेरे अन्तर में एक कवि है, जो काफी हूट होने के बाद सुप्त हो गया है। तितली का नाम सुनते वह चौंक उठा और इल्ली के समर्थन में भाषण देने लगा कि यह तो बाग की शोभा है। मैंने कहा : अबे गोभी के बिग फूल तैने कभी अखबार पढ़ा, ये इल्लियाँ चने के खेत खा रही हैं और अगले वर्ष भाजिए और बेसन के लड्डू महँगे होने की संभावना है, मूर्ख, चुप रह! कवि चुप क्यों रहने लगा? मैंने दुबारा बुलाने का आश्वासन दिया, तब माइक से हटा।

जब अखबारों ने शोर मचाया, तो नेताओं ने भी भाषण शुरू किए या शायद नेताओं ने भाषण दिए, तब अखबारों ने शोर मचाया। पता नहीं पहले क्या हुआ? खैर, सरकार जागी, मंत्री जागे, अफसर जागे, फाइल उदित हुई, बैठकें चहचहायीं, नींद में सोए चपरासी कैंटीन की ओर चाय लेने चल पड़े। वक्तव्यों की झाड़ुएँ सड़कों पर फिरने लगीं। कार्यकर्ताओं ने पंख फड़फड़ाए और वे गाँवों की ओर चले। सुबह हुई। रेंगती हुई रिपोर्टों ने राजधानी को घेर लिया और हड़बड़ाकर आदेश निकले। जीपें गुर्राईं। तार तानकर इल्ली का मामला दिल्ली तक गया और ठेठ हिन्दी के ठाठ में कार्यवाहियाँ हुईं कि खेतों पर हवाई जहाज सन्ना कर दवाइयाँ छिड़कने लगे। हेलीकॉप्टर मँडराने लगे। किसान दंग रह गए। फसल बची या नहीं क्या मालूम, पर वोट मजबूत हुए। इस बात को विरोधियों ने भी स्वीकार किया कि अगर ऐसे ही हवाई जहाज खेतों पर दवा छिड़कते रहे, तो अपनी जड़ें साफ हो जाएँगी। शहर के आसपास यह होता रहा, पर बन्दा अपना छह पृष्ठ का अखबार दस पैसों में पढ़ता यहीं बैठा रहा। स्मरण रहे आलसियों की यथार्थवाद पर पकड़ हमेशा मजबूत रहती है।

एक दिन एक कृषि-अधिकारी ने कहा, चलो, इल्ली-उन्मूलन की प्रगति देखने खेतों में चलें। तुम भी बैठो हमारी जीप में। मैंने सोचा चलो इसी बहाने पता लग जाएगा कि चने के पौधे होते हैं या झाड़, और मैं जीप में सवार हो लिया। रास्ते-भर मैं उसके विभाग के अन्य अफसरों की बुराइयाँ करता उसका मनोरंजन करता रहा। कोई डेढ़ घंटे बाद हम एक ऐसी जगह पहुँच गए, जहाँ चारों तरफ खेत थे। वहाँ एक छोटा अफसर खड़ा इस बड़े अफसर का इन्तजार कर रहा था। हम उतर गए। मैंने गौर से देखा चने के पौधे होते हैं। खेत होते हैं यानी समधन की घोड़ी गलत नहीं खड़ी थी। वह वहीं खड़ी थी, जहाँ हमारी जीप खड़ी थी।

हम पैदल चलने लगे। चारों ओर खेत थे, मैंने एक किसान से पूछा, 'तुम जब खेतों को खोदते हो तो क्या निकलता है?'

वह समझा नहीं। फिर बोला, 'मिट्टी निकलती है।'
'इसका मतलब है प्राचीन काल में भी यहाँ खेत ही थे।' मैंने कहा। मेरी जरा इतिहास में रुचि है। खुदाई करने से इतिहास पता लगता है। अगर खुदाई करने से नगर निकले, तो समझना चाहिए कि यहां प्राचीन काल में नगर था और यदि सिर्फ मिट्टी निकले तो समझना चाहिए कि यहाँ प्राचीन काल में खेत थे। और यदि मिट्टी भी नहीं निकले तो समझना चाहिए कि खेत नहीं थे।

आगे-आगे बड़ा अफसर छोटे अफसर से बातें करता जा रहा था। 
'इस खेत में तो इल्लियाँ नहीं हैं?' बड़े अफसर ने पूछा।
'जी नहीं हैं।' छोटा अफसर बोला।
'कुछ तो नजर आ रही हैं।'
'जी हा, कुछ तो हैं।'
'कुछ तो हमेशा रहती हैं।'
'जी हां, कुछ तो हमेशा रहती हैं।'
'खास नुकसान नहीं करतीं।'
'जी, खास नुकसान नहीं करतीं।'
'फिर भी खतरा है।'
'खतरा तो है।'

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