लेख-निबंध >> जीप पर सवार इल्लियाँ जीप पर सवार इल्लियाँशरद जोशी
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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...
''हां, दिए थे!'' संयोजक ने गर्व से कहा-''हमने एक हजार निमन्त्रण-पत्र छपवाए
साहब। चौबीस रुपए खर्च हुए। आप लोगों ने देखे या नहीं?'' और उसने जेब से
एक-एक निमन्त्रण-पत्र निकालकर हम दोनों को थमा दिया।
लाउडस्पीकर पर फिल्मी गाने जोरों से चीखने लगे। संयोजक उस तेज आवाज का प्रभाव
आँकने बाहर चला गया। नेता ने एक बार निमन्त्रण-पत्र पर नजर डाली और उसे सोफे
पर हम दोनों के बीच डाल दिया। मैं निमन्त्रण-पत्र को पढ़ता रहा।
मुझे जाने क्यों अपने लेखक मित्रों के भीड़ और अकेलेपन की समस्या पर दिए गए
वक्तव्य याद आने लगे। हम सब भीड़ हैं। हम सब भीड़ में कहीं हैं। हम सब इस भीड़
में कितने अकेले हैं, कितने असहाय! हम सब इस भीड़ से कहीं दूर जाना चाहते हैं,
हम सब भीड़ से भागना चाहते हैं, पर भीड़ हमें बार-बार घेर लेती है। उफ, यह भीड़
कैसी घुटन है! पर इस विशाल हाल में आगे रखे सोफे पर बैठे हम दोनों भीड़ से
भागना नहीं चाहते। हम भीड़ की प्रतीक्षा कर रहे हैं। हम भीड़ के बिना अपने को
कितना अकेला और असहाय अनुभव कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि भीड़ आए और हमें घेर
ले। बिना भीड़ के कितनी घुटन अनुभव हो रही है।
दो व्यक्ति आए और हाल के बाहर बरामदे में खड़े हमारी ओर देखने लगे। उनमें एक
व्यक्ति गंजा था, कन्धे पर थैला डाले था और कुरता-पाजामा पहने था। वह कुछ
आदर्शवादी लगता था या हो सकता है कि वह सी.आई.डी. का आदमी हो क्योंकि वे लोग
भी चेहरे से बड़े आदर्शवादी लगते हैं। वे लोग इस तरह खाली हाल में हमें बैठा
देखकर कनखियों से एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्कुराए। मैंने उनकी ओर से नजरें
घुमा लीं और मैं मंच की ओर देखने लगा। मंच पर टेबिल और तीन कुर्सियाँ रखी
थीं। एक नेता के लिए, एक मेरे लिए और एक संयोजक ने शायद अपने बैठने के लिए रख
छोड़ी थी। मैंने सोचा कि मैं इस दाहिनी कुर्सी पर बैठूँगा। अगर सचमुच सभा हुई
तो इस विशाल हाल में भाषण देना सचमुच में अच्छा लगेगा।
नेता ने निमन्त्रण-पत्र फिर उठा लिया और वह उसे पढ़ने लगा।
''आज का विषय बहुत अच्छा है!'' मैंने नेता से कहा।
''हां, विषय बहुत अच्छा है!'' उसने जवाब दिया और निमन्त्रण-
पत्र देखता रहा।
हम लोग आज एक बहुत अच्छे विषय पर बोलने के लिए निमन्त्रित थे। एक चर्चा का
विषय सामयिक और ज्वलन्त था। मैंने आज सुबह बैठकर कुछ नई बातें सोची थीं और
मैं सभा का ध्यान उन तर्कों से अपनी ओर खींच लेता। मैंने इसी विषय को लेकर
एक-दो निबन्ध भी पढ़े थे। मैं हू-ब-हू एक ऐसी ही स्थिति खोज सका था और तब जो
सलाह तुलसीदासजी ने दी थी, वही रामायण के सन्दर्भ के साथ मैं देनेवाला था।
अपनी गम्भीरता और अध्ययनशीलता के प्रभाव के विषय में मैं बिलकुल निश्चिन्त
था।
हाल के बाहर मोटर-साइकिल रुकी और एक फोटोग्राफर तेजी से हाल के अन्दर आया और
मुझे तथा नेताजी को नमस्कार कर देर से आने के लिए क्षमा माँगने लगा। हम लोग
उसकी ओर देखकर मुस्कुराए। फिर खाली हाल देखकर वह खुद झेंपा और घड़ी देखने लगा।
वास्तव में वह बहुत तेजी से मोटर-साइकिल पर आया था और रास्ते में उसने
निश्चित किया था कि पहुँचते ही वह क्षमा माँग लेगा। वह उसी जोश में
मोटर-साइकिल से उतरा भी और आकर क्षमा माँगने लगा। पर सब व्यर्थ था। तभी
संयोजक हाल में घुसा। उसके साथ दो महिलाएँ थीं। उसने दोनों महिलाओं का परिचय
मुझसे और नेताजी से करवाया।
हम लोग खड़े हो गए। इतने बड़े हाल में एक मिनट को ड्राइंग-रूम का वातावरण बन
गया। वे महिलाएँ पास के सोफे पर बैठ गईं। फोटोग्राफर संयोजक से हाथ
मिला-मिलाकर हँस रहा था। पता नहीं वे किस बात पर हँस रहे थे।
तभी नेताजी का साथी बीड़ी फूँकता हुआ आया और हाल की एक कुर्सी पर बैठ गया।
माइकवाले ने एक कव्वाली का रिकार्ड लगा दिया। मैं कव्वाली के बोल सुनने लगा।
नेताजी सिर झुकाकर अपने जूते देखने लगे। तभी झोला कन्धे पर लटकाए वह गंजा,
आदर्शवादी शक्ल का आदमी बरामदे में अपने साथी सहित फिर दिखाई दिया। वे दोनों
हाल में आकर पीछे बैठ गए। शायद वे बाहर खड़े-खड़े थक गए थे। वे निश्चित ही बड़े
निष्ठावान और ईमानदार व्यक्ति थे, जो इस विषय में हमारे विचार जानने आए थे।
या हो सकता है, वे सी.आई.डी. के आदमी हों।
कुछ लोग और आए और हाल में बैठ गए। शायद कोई सिटी बस पास के स्टाप पर रुकी थी
और उससे ये गुच्छा-भर लोग उतरे थे। नेताजी ने पीछे घूमकर देखा। इस उपस्थिति
के बावजूद हाल का खालीपन दूर नहीं हुआ था। मैंने उन्हें देखा और हमारे चेहरों
पर मुस्कान तैर गई। एक आशा कौंध गई कि सभा होगी और हम बोलेंगे। सचमुच सभा
होगी और सचमुच हम बोलेंगे। मैं सोचने लगा कि मुझे क्या बोलना है। मैं उन
तर्कों और तर्क के क्रम को मन-ही-मन दुहराने लगा जो मुझे आज कहना था। मुझे
लगा, वह मुझे याद नहीं आ रहा। इस हाल के खालीपन ने मेरे दिमाग में एक खालीपन
भर दिया और मैं भूलने लगा।
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