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जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


इन्तजार एक भीड़ का

उस दिन उस बिलकुल खाली हाल के सामने एक सोफे पर हम दोनों बैठे थे-एक नेता और मैं। आस-पास कोई नहीं था। कुछ देर पहले कुछ लड़के वहाँ शोर मचा रहे थे पर बाद में वे भी कहीं भाग गए थे। वे सिर्फ तीन-चार थे। अगर हम उन्हें शान्ति से बैठा देते तो भी सभा तो नहीं हो सकती थी। वह नेता और मैं सोफे से टिके हुए बैठे थे। भाषण देने को बेचैन पर दोनों चुप थे। हमारे कंठ में भाषण, अच्छे-खासे लम्बे भाषण, रुके हुए वक्त का इन्तजार कर रहे थे।

वक्त हो चुका था। नेता ठीक समय से आया था। उसकी यह विशेषता है कि उसे जो समय दो, उस पर आ जाता है। उसे अपनी इस अभारतीय आदत पर बड़ा गर्व था कि वह और नेताओं की तरह देर से नहीं आता। वह आज भी ठीक समय से आया था। उसके साथ एक व्यक्ति और था जो अभी कहीं बीड़ी पीने निकल गया था। मैं इस नेता से पहले आया था। वक्त से काफी पहले आ जाना कोई सम्मानजनक बात नहीं होती, यह मैं जानता हूँ पर मुझे लग रहा था कि लोग इससे मुझे बड़ा सरल और सीधा व्यक्ति समझेगे कि भई जोशीजी काफी पहले आ गए थे।

मैं पहले आकर हाल के पीछे चट्टानों पर एक जगह रुमाल बिछाकर बैठ गया और सामने तालाब और उसके पीछे नजर आता शहर देखने लगा। मैं प्रकृति को देख रहा था और इस बारे में बड़ा कान्शस था कि मैं प्रकृति को देख रहा हूँ। लेखकों को कभी-कभी प्रकृति की ओर देख लेना चाहिए। खास तौर से हम छोटे शहरों और कस्बों के लेखकों से यह अपेक्षा की जाती है कि हम यदा-कदा प्रकृति को देखेंगे।

मैं तालाब को देख रहा था क्योंकि इसके अलावा कुछ किया जाने को नहीं था। मुझे एक क्षण को यह लगा कि मैं बहुत गहरा व्यक्ति हूँ जो इस तरह अकेला एक चट्टान पर बैठा प्रकृति की ओर देख रहा हूँ। मैं चाहता था कि लोग मुझे इस तरह प्रकृति की ओर देखते हुए देखें। दो लड़के जो साइकिल से वहाँ से गुजरे, उन्होंने मुझे देखा भी। हो सकता है वे इससे प्रभावित भी हुए हों।
इसी समय मैंने नेता की कार को आते हुए देखा और मैं उठ खड़ा हुआ। जब मैं हाल के अन्दर आया तब संयोजक नेता से क्षमायाचना कर रहा था कि अभी तक लोग नहीं आ सके, पता नहीं क्या बात है। जब मैं अन्दर घुसा तब उसने मुझसे क्षमा माँगी और वही बात दुहराई, फिर वह हम दोनों को सोफे पर तशरीफ रखने की कह कहीं चला गया। वह इस तेजी से गया जैसे वह अभी जाएगा और सारे श्रोताओं को पकड़ लाएगा। हम दोनों सोफे पर बैठ गए। नेता का साथी बीड़ी पीने चला गया।

हम दोनों ने एक-दूसरे से बातचीत की। उसने मेरी एक रचना का जिक्र किया जो वह पता नहीं कहां, कैसे, कब और यों ही पढ़ गया था। फिर मैंने उसके एक वक्तव्य का जिक्र किया जो केन्द्रीय शासन से एक नए झगड़े की शुरुआत करता था। एक-दूसरे की प्रशंसा करने
के बाद तुरन्त ही हमें यह अनुभव हुआ कि ये सब बातें बेकार हैं क्योंकि हम भीड़ जुटाने में असमर्थ हैं। हम यहाँ अकेले बैठे हैं भाषण देने को और लोग सुनने नहीं आए हैं। वह कितना अच्छा नेता है और मैं कैसा लेखक, पर हम दोनों श्रोताओं को एकत्र नहीं कर पाए। हमारे नाम निमन्त्रण-पत्र पर छपे हुए थे कि हम बोलनेवाले हैं फिर भी लोग नहीं आए थे। भाषण हमारे कंठ में रुके हुए इन्तजार कर रहे थे, फूट पड़ने को बेचैन, पर हाल में कोई नहीं था। हम एक-दूसरे से क्या बातें करते! हम क्या करते!

इतने में संयोजक फिर हाल में आया। इस बार उसके साथ माइकवाला था। उसने माइकवाले से कहा कि वह रिकार्डिंग शुरू करे। उसने माइकवाले से यह बात बहुत डाँटकर कही और फिर हम लोगों की ओर देखने लगा। वह इस तरह हमें बता रहा था कि उसने भीड़ न होने के मूल कारण को पकड़ लिया है कि रिकार्डिंग नहीं हो रही है। वह आश्वस्त था कि लोग इसके बाद आ जाएँगे। फिर वह हमारे पास आकर खड़ा हो गया। मुझे उसका इस तरह पास खड़े होना बिलकुल बेमतलब लगा।

नेता संयोजक की ओर क्रोध से देखने लगे। मैंने संयोजक की ओर क्रोध से नहीं देखा। मैं संयोजक का आभारी था कि उसने मुझे बुलाया। यद्यपि हाल खाली था, श्रोता नहीं थे पर मैं संयोजक का आभारी था कि उसने मुझे बोलने के लिए निमंत्रण दिया। पर नेता श्रोताओं की अनुपस्थिति से क्रुद्ध था। वह श्रोताओं पर नहीं, वह संयोजक पर नाराज था। ''तुमने निमन्त्रण-पत्र दिए थे या नहीं?'' नेता ने पूछा।

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