लेख-निबंध >> जीप पर सवार इल्लियाँ जीप पर सवार इल्लियाँशरद जोशी
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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...
उस दिन मैंने जीप में दो बहुत सुन्दर बच्चियों को बैठे देखा, वे दोनों बहुत
मीठी अंग्रेजी में बातें कर रही थीं। जीप सरकारी थी जैसी कि होती है। उनके
पिता खादी के सूट का नाप देने टेलर के यहाँ आए थे। फिर उन्हें इन बच्चियों को
छोड़ने कान्वेण्ट स्कूल तक जाना था। मेरे परिचित हैं। मुझे उन्होंने मेरे एक
व्यंग्य पर बधाई दी जो मैंने शिक्षा के मामले पर लिखा था। कहने लगे, ''क्या
बात है, मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ। समझ नहीं आता, नई जेनरेशन का क्या होगा?
हम तो पढ़-लिख, मेहनत कर आई.ए.एस. हो गए, पर क्या हमारे बच्चे हों पाएँगे?
हमें शक है।'' वे बौद्धिक चर्चा के लिए बंगले पर आने का निमन्त्रण दे चले गए।
उनकी जीप गुर्राई और आगे बढ़ गई। वे छोटी बच्चियाँ मुझे टा-टा करती रहीं। जीप
में बैठी वे बहुत सुन्दर लग रही थीं।
वे बारीपुर के डाकबंगले जीप लेकर गए। रात के ग्यारह बजे वे वहाँ पहुँचे।
लड़कियाँ उठाने में देर लग गई। उनके साथ खाना और पीने की व्यवस्था। मूड अच्छे
थे, चाँद था, और चौकीदार ने इन्तजाम करने में देर नहीं लगाई। जीप को उन्होंने
डाकबंगले के दाहिनी ओर घुमाकर नीम के नीचे खड़ा कर दिया। रातभर जीप पर नीम की
सूखी पत्तियाँ गिरती रहीं। सिलेटी रंग पर वे पीली पत्तियाँ बहुत सुन्दर लग
रही थीं। सुबह छह बजे मैंने उन लोगों को पेट्रोल पम्प पर देखा। नमस्कार वगैरा
हुआ। जीप के पीछे की ओर दो लड़कियाँ, जिनके बाल लगभग आँखों पर आ गए थे, शाल
में लिपटी-ठिठुरती हुई बैठी थीं। उस व्यक्ति ने मुझे मेरे एक सद्य:प्रकाशित
व्यंग्य पर बधाई दी, जो मैंने सड़कों की दुर्दशा पर लिखा था। अभी भी एक-दो
नीम की सूखी
पत्तियाँ जीप पर यहाँ-वहाँ अटकी रह गई थीं। उसने कहा कि सड़कों की हालत जैसा
मैंने लिखा उससे भी ज्यादा खराब है। यह तो शहर है, पर गाँव की सड़कों में
गहरे गड्ढे हैं जिनकी बरसों से दुरुस्ती नहीं हुई। मैंने देखा, उन लड़कियों की
आँखों में नींद है, मगर वे जाने किस बात पर मुस्कुरा रही हैं, वह कह रहा था
कि सड़कों की हालत खराब है। वे लोग जीप में बैठ चले गए मेरी ओर मुस्कुराते।
सड़कों की हालत खराब है। मनुष्य के चरित्र की तरह। मगर इससे जीप को क्या होता
है, वे भी तो हर तरह की सड़क पर चली जाती हैं। फोरव्ही ड्राइव का यही तो लाभ
है। मुझे लगा, मैं सड़क के गड्ढे में बैठा व्यंग्य लिखता रहूँगा और जीप मेरे
सिर पर से निकल जाएगी।
विकास आयुक्त या सचिव की लड़की का ब्याह था। वे लोग स्टेशन पर बारात की अगवानी
करने आए थे। तीन कारें और ग्यारह जीपें। सरकारी आयोजन का समाँ बँध गया। मुझे
अच्छा लगा। गर्म सूट में बदन ढँके वे लोग रेल की प्रतीक्षा में खड़े थे। वहाँ
मेरे कुछ परिचित थे। कुछ नए परिचित हुए। वे लोग भी व्यंग्य पर बात करने लगे।
कहने लगे, ''जोशीजी, आपने रेल लेट आने पर व्यंग्य लिखा या नहीं?''
''मेरे पुरखे लिख चुके,'' मैंने कहा।
वे हँसने लगे। रेल आने पर जीपों में बारातियों को लाद चल दिए।
कई जगह, लगभग सभी जगह मुझे जीप खड़ी नजर आ जाती है। ये निरन्तर बन रही हैं और
निरन्तर चली आ रही हैं। ऐसा लगता है सरकार विकास की रकम दो भागों में बाँट
देती है। आधी रकम से जीपें खरीदती है, आधी रकम से जीपों के लिए पेट्रोल। जीप
आधार है। जो कुछ होगा जीप पर होगा। दिल्ली से आए पत्रकारों को प्रोजेक्ट
दिखाना हो, कुँवर साहब की फेमिली सिनेमा जा रही हो, फायनेन्स से जरूरी कागज
निकालना हो या चमचागिरी करने सुबह बंगले पहुँचना हो, जीप होना चाहिए। जीप
कर्म का मूल है। जो जीपधर्मी हैं, वे ही कर्मठ हैं। जीप में बैठना ही जीवन
है, राष्ट्र की सेवा है, मानव की सेवा वगैरह।
मुझे भय है किसी दिन यों न हो कि मैं भी लिखना छोड़ जीप में समा जाऊँ और अपनी
जमीन भूल किसी दिशा में आकांक्षाओं का एक्सीलेटर दाब दूँ। हो सकता है, सरकार
किसी दिन व्यंग्य की महत्ता स्वीकार कर ले और बोले कि थोड़ा रुपया व्यंग्य के
लिए सैंक्शन कर दो। जैसे कुछ सरकारी विभागों ने अपने यहीं कार्टूनिस्ट नौकर
रखे हैं। हो सकता है, वे व्यंग्य को भी योजना में डाल दें। तब हर व्यंग्यकार
को एक-एक जीप मिल जाएगी। खूब घूमो और व्यंग्य करो। क्योंकि, लगता है, होना
कुछ ऐसा ही है। संगीत हो, परिवार नियोजन, शिक्षा, समाजवाद, भावनात्मक एकीकरण,
कला, कच्चा लोहा, छोटे उद्योग, सत्य, फलों का उत्पादन, नैतिकता, नागरिकता,
जूतों के उद्योग का विकास, बाढ़ से रक्षा, विज्ञान, सुरक्षा, जनसम्पर्क,
आदिवासी जीवन का अध्ययन या कुछ भी-सबके लिए अन्ततः एक जीप दे दी गई और वे
निश्चिन्त हो गए। अगर हमने बहुत व्यंग्य लिखे और सभी बातें उजागर होने लगीं,
तो वे इसे नार्मल मान लेंगे और एक जीप हमें सौंप देंगे। लो बेटा, घुमाओ।
घुमाएँगे। जदि तोर डाक शुने केऊ ना आशे तबे जीपे चालो रे!
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