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जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


जीप और जीपवाले

राजधानी नगरों की शोभा है-सरकारी जीपें। जैसे जंगल नामक स्थान पर हिरन नामक प्राणी कुलाँचें भरते रहते हैं, वैसे ही मन्त्रियों और अफसरों के शहर में जीपें दौड़ती रहती हैं। इनकी विशेषता है कि ये जंगलों में घूमती रहनेवाली आदिवासी स्त्रियों की तरह किसी भी मोड़, ढाल और ऊँचाई से आती-जाती दिखाई देती हैं। इसमें कुछ खास किस्म के ड्राइवर तथा कुछ खास किस्म के अफसर बैठे रहते हैं। उन्हें देख लगता है कि ये फरिश्ते इस संसार में जीप लेकर जन्मे हैं और जब इस दुनिया से जाएँगे, सिर्फ एक जीप इनके पास होगी, शेष अपना सब-कुछ यहीं छोड़ जाएँगे। ये लोग अपनी जीपों में बैठे हुए मुझे सभी जगहों पर नजर आते हैं। कभी जीप से उतरते हुए, कभी जीप में चढ़ते हुए। और तब मेरा हृदय इनके प्रति श्रद्धा से भर जाता है। कार पर चढ़ने-उतरनेवालों से ये लोग कितने भिन्न, कितने अपने हैं। जैसे हममें से ही कोई उठा हो और सदैव के लिए किसी सरकारी जीप में समा गया हो। बल्कि उसकी जीवन-कथा तो संक्षेप में यों कही जाएगी कि वह माँ के पेट से निकला और जीप पर चढ़ गया। जैसे पुराण महाभारत में एक वीर बालक की जन्म-कथा यों कही जाती है कि वह जन्मते ही कूदकर रथ पर चढ़ गया और उसे पृथ्वी पर दौड़ाते हुए चारों दिशा में हुंकार करने लगा। आज जीप में बैठे घूम रहे ये वीर उसी महावीर की सन्तानें हैं। चारों दिशा में दौड़ रहे हैं। यहाँ से वहाँ, वहाँ से और कहीं। निरुद्देश्य, मौज करते हुए, तीव्र गति से। कितने सुन्दर लगते हैं ना। छोटी-छोटी आँखें, भारी पेट लिए, हँसते, ठहाके लगाते, दूसरों की  बुराइयाँ करते, पेंडिंग फाइलों, तबादलों, न मिलनेवाले सेंक्शंस आदि रसमय विषयों पर बतियाते, पान चबाते, राह में रोड़ा बने रहनेवाले पैदल नगरवासियों पर दयाभरी नजरें फेंकते चले जाते हैं। उतरते भी हैं तो फिर चढ़ने के लिए। मगर चढ़ते हैं तो उतरने के लिए नहीं। लगता है, जीप  माध्यम नहीं, लक्ष्य है। एक चलता-फिरता वरदान, पहियों पर घूमती जिन्दगी की एक बड़ी मंजिल जो प्राप्त हो गई। जीपें किसी राह पर नहीं जातीं, मगर राहें, जिन्दगी की राहें, अन्त में किसी जीप तक पहुँचती हैं। मनुष्य चलता है ठोकरें खाता, लड़खड़ाता, थकता, रुकता और आगे बढ़ता। और एक दिन वह जीप तक पहुँच जाता है। अपनी बाई टाँग ऊपर उठा वह बैठ जाता है और उसे सदैव के लिए सारे संकटों से मुक्ति मिल जाती है। राही को मंजिल मिल जाती है और मंजिल को काम चलाने के लिए एक राही। यह दीप अकेला, स्नेहभरा, मदमाता वगैरा जाने क्या, मगर इसको भी जीप में डाल दो। छुट्टी हुई।

जीप जा रही है। कोई पूछे, 'तुम कहाँ जा रही हो, ओ जीप?' इसका कुछ भी उत्तर हो सकता है, जैसे कि हम सचिवालय जा रहे हैं, या हम चेकिंग करने और रिश्वत का डोल जमाने जा रहे हैं, हम मंत्रीजी के स्वागत के लिए भीड़ जुड़ाने की कोशिश करने जा रहे हैं, हम किसानों के बीज-वितरण के लिए जा रहे हैं, भाभी को लेने बड़े भाई साहब के ससुराल जा रहे हैं, हम कलाली जा रहे हैं, हम निर्माण-कार्य की प्रगति देखने जा रहे हैं, हम बीस की बड़ी बेबी के मार्क्स बढ़वाने के लिए प्रोफेसरों से मिलने जा रहे हैं, हम सत्यनारायण की कथा सुनने जा रहे हैं। हम समाजवाद लाने जा रहे हैं, हम सिनेमा जा रहे हैं। कुछ भी उत्तर हो सकता है। या हो सकता है कोई उत्तर न हो। बस कि हम जा रहे हैं। जा रहे हैं, क्योंकि यह जीप है। वह ले जाती है, हम जाते हैं। हम उसकी सेवा में हैं। वह जाती है। हम जाते हैं। हम क्या हैं? हमें कुछ नहीं पता, सिर्फ जीप जानती है, वह हमें कहां ले जाएगी। यह जनम-जनम के फेरे हैं। हम तेरे हैं।

पूरा विश्वास है, समाजवाद एक दिन जीप में बैठकर आएगा। हमारा शहर राजधानी का शहर है, अतः झख मारकर उसे सबसे पहले यहाँ आना होगा। तब गवर्नर साहब बदलती हुई राजनैतिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर शायद उसके लिए इम्पाला भिजवाएँगे। ताँगा यूनियन चलानेवाले समाजवादी शायद उसके लिए एक सजा हुआ ताँगा लेकर पहुँचें। मगर समाजवाद दोनों से इनकार कर देगा। वह कहेगा कि मुझे गाँवों में जाना है, मुझे दफ्तरों और बंगलों में जाकर कुछ जरूरी चर्चाएँ करनी हैं। मुझे जीप चाहिए। समाजवाद को जीप मिल जाएगी और वह इस राजधानी नगर में चक्कर लगाने लगेगा। उस वीर बालक की तरह, जो जन्मा और रथ पर चढ़ गया। वह बहुत तेजी से इस शहर में चक्कर लगाएगा। देर रात सेकेण्ड शो के बाद दूर बने किसी सिनेमा-घर से लौटनेवाली जीप की तेजी से वह गुजरेगा और सड़क चलनेवाले भागकर एक ओर हो जाएँगे। वे आश्चर्य और प्रसन्नता से कहेंगे कि यह समाजवाद की जीप है। उनमें से कुछ कहेंगे कि नहीं, यह केवल जीप है, कुछ कहेंगे, यह समाजवाद है। धीरे-धीरे इस राजधानी नगर में समाजवाद एक जीप की शक्ल अख्तियार कर लेगा। एक और जीप। आदमियों के जंगल में कुलाँचे भरता एक और इरादों का हिरन। अपनी सुगन्ध में मग्न एक कस्तूरी मृग। समाजवाद। उद्देश्यों से महकता हुआ। वह महक धीरे-धीरे पेट्रोल के धुएँ की गन्ध में बदल जाएगी। वह जीप, वह समाजवाद गाँवों में भी जाएगा। ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर वह किसी विकास अधिकारी की जीप-सा झोपड़ियों के करीब से गुजर जाएगा। हार्न बजाता, गन्दे धूल में खेलते नंगे बच्चों को एक ओर हटाता। लोग हर्ष से कहेंगे कि समाजवाद है। उनमें से कुछ कहेंगे, नहीं, यह एक जीप है। उसे अन्ततः एक जीप होना है।

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