लोगों की राय

लेख-निबंध >> जीप पर सवार इल्लियाँ

जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

241 पाठक हैं

शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


''इसमें क्या शक है!''
''दूसरे नेता टुच्चे हैं, बेशर्म हैं।'' वे क्रोध में बोले-''मैं जितना हर बात पर शर्मिन्दा होता हूँ, उसके वे एक-चौथाई भी नहीं होते।''
''उनकी आपसे क्या बराबरी। आप तो शर्म में डूब मरते हैं, जब कि वे चिंता भी नहीं करते।  निहायत शर्म की बात है।''
''तुम मानते हो!''
''मानता हूँ।'' मैंने जोर देकर कहा।
''तुम्हारा कोई काम हो तो बताना, हम कर देंगे।'' वे बोले।
''फिलहाल कोई काम नहीं। मगर आप यह बताइए कि आपने सप्ताह में एक दिन शर्माना बन्द क्यों कर दिया?''
वे गम्भीर हो गए। उन्होंने छत की ओर देखा, गरदन सहलाई और धीरे से कहा-''देखो, हमारा देश प्रगति कर रहा है। प्रगति करने के साथ समस्याएँ बढ़ रही हैं। अब वह समय नहीं रहा जब नेता मजे से सिर्फ सप्ताह में एक बार शर्म खाता था और बाकी दिन आराम से पड़ा रहता था। अब  स्थितियाँ बदल रही हैं। जनता हमसे उम्मीद करती है कि हम ज्यादा-से-ज्यादा शर्म करें और हमें करनी पड़ रही है।''
''मगर कब तक, आखिर कब तक? कब तक आप देश की हालत पर शर्मिन्दा होते रहेंगे? कुछ कीजिए, निर्णय लीजिए, कदम उठाइए साहब। मुझे तो आपके स्वास्थ्य की चिन्ता हो रही है। कहीं आपको दिल का दौरा न पड़ जाए।''
''इस शरीर ने जीवन-भर दौरा किया है। सारा देश-विदेश घूमा है। एक दौरा दिल का भी सही।'' वे बोले और सिर लटकाकर बैठ गए।
''नहीं-नहीं, मैं यह नहीं होने दूँगा। आप कुछ कीजिए। पार्टी को एक कीजिए, समस्याओं के हल  निकालिए, कड़े कदम उठाइए, कुछ कीजिए!''
''मैं शर्मिन्दा हूँ।''
''सिर्फ इससे काम नहीं चलेगा, कुछ कीजिए।''
''मैं शर्मिन्दा हूँ और क्या करूँ!'' वे झल्लाकर बोले-''मैं शर्मिन्दा हूँ कि पार्टी में एकता नहीं, समस्याएँ हल नहीं हो रहीं, हम कड़े कदम नहीं उठा रहे, हम कुछ कर नहीं रहे, इसलिए मैं  शर्मिन्दा हूँ, और क्या चाहते हो!''
वे यह सब बहुत चिल्लाकर बोले थे। उनकी आवाज सुन उनका वही चमचा, जो मुझे दरवाजे पर मिला था, दौड़कर अन्दर आया और मुझे सोफे से खींचने लगा-''उठिए आप, निकलिए यहाँ से।  आप एक नेता को डिस्टर्ब कर रहे हैं। यह उनके शर्मिन्दा होने का वक्त है। उन्हें शान्ति से  शर्मिन्दा होने दीजिए।''
''आप कौन हैं?''
''मैं मंत्रीजी का चमचा हूँ।''
''मैं डिस्टर्ब नहीं कर रहा।'' मैं नेता की तरफ घूमा-''आय एम सॉरी। मैं डिस्टर्ब नहीं करना चाहता। मैं शर्मिन्दा हूँ।''
''यह मुझे डिस्टर्ब नहीं कर रहे हैं, इन्हें बैठा रहने दो।''-उन्होंने चमचे से कहा। चमचा मेरी और  क्रोध से घूरता चला गया।
कुछ देर चुप्पी रही। फिर वे बोले-''तुमको भी कभी शर्म आती है?''
''आती है। कई मामलों में मेरा सिर शर्म से झुक जाता है। जैसे
हमारे निष्क्रिय नेताओं को देखकर, जिन्हें हमने चुना है।''
''तुम ठीक करते हो। यह हमारा राष्ट्रीय गुण है, धर्म है। हर भारतवासी को शर्मिन्दा होना चाहिए। अच्छी बात है।''
उन्होंने गर्दन लटका ली, सिमटे पैरों को और समेटा और धीरे-धीरे एक अच्छे नेता की तरह शर्म से सोफे में डूब गए।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book