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जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


''आप अहमदाबाद पर शर्मिन्दा हुए या नहीं?''
''अरे, अहमदाबाद पर तो दो-तीन दिन रहा। पिछले दिनों तो
कुछ हुआ कि जब शर्मिन्दा होने को कुछ नहीं मिला, तो अहमदाबाद पर हो लिया। मगर सवाल यह है कि एक ही विषय पर कब तक शर्मिन्दा रहें। बोर हो जाता हूँ।''
''सही बात है!''
''क्या किया जा सकता है। हमारा देश इतना विशाल है, समस्याएँ इतनी अधिक हैं और हालत ऐसी हो गई है। कई बार तो दिन में दो-तीन मामले ऐसे हो जाते हैं कि नेताओं का काम बढ़ जाता है और उन्हें लम्बे वक्त तक शर्म से झुके रहना पड़ता है।''
''मगर मैं कहता हूँ कि आप अपने विभाग की शर्म झेलिए। आप दूसरे मंत्री के विभागों की बातों पर क्यों शर्मिन्दा होते हैं? केबिनेट में सबको अलग-अलग विभाग बँटे हुए हैं।''
''ठीक कह रहे हो।''
''जैसे रबांत सम्मेलन में हमें भाग लेने नहीं दिया गया। यह शर्म की बात हुई। मगर साहब इसके लिए विदेश विभाग के मंत्री लज्जित हों, आप काहे अपना कीमती वक्त खराब करेंगे?''
''कह तुम ठीक रहे हो, मगर भाई हम आल इंडिया लीडर हैं-हमसे कुछ अपेक्षाएँ की जाती हैं, हमारे कुछ फर्ज हैं। सिर्फ अपने विभाग तक हम सीमित तो नहीं रह सकते।''
''इस तरह तो आप अपना स्वास्थ्य खराब कर लेंगे।''
''देश के लिए जीवन दे दिया है, तुम स्वास्थ्य की बात कर रहे हो!''
''मैं आपसे सहमत नहीं। आपके पास दो-तीन विभाग हैं, अपि वरिष्ठ नेता हैं। आपकी शर्मिन्दगी की एक सीमा है, एक स्तर है। आप हर किसी मामले में शर्मिन्दा नहीं हो सकते। जैसे आपके पास कृषि-विभाग है और देश में पैदावार कम हो रही है। विदेशों से अनाज मँगाना पड़ रहा है। आपको सिर्फ इस बात पर शर्मिन्दा होना चाहिए।''
''पहले तो तुम यह सुधार कर लो कि मेरे पास कृषि-विभाग नहीं है। जब था, तब भी मैं इस बात पर शर्मिन्दा नहीं था कि हमें बाहर से अनाज मँगाना पड़ता है। यह नीति का प्रश्न है, इसमें शर्म कैसी!'' वे गरजकर बोले।
उन्हें क्रोधित देख मैं नरम पड़ा। मगर मैंने सूत्र नहीं तोड़ा। मैंने कहा, ''श्रीमान, जहाँ तक मुझे ख्याल आता है, मैंने अनेक बड़े नेताओं को भाषणों में यह वक्तव्य देते सुना है कि यह हमारे लिए शर्म की बात है कि देश को बाहर से अनाज मँगाना पड़ रहा है।''
वे जोर से खिलखिलाकर हँस पड़े।
''देखो भाई, ऐसा है कि शर्म-शर्म में भी फर्क होता है। कुछ बातों को लेकर नेता लोग जनता को शर्मिन्दा करने की कोशिश करते हैं, जैसे अनाज ज्यादा पैदा न करने की बात, अधिक पैदा करने की बात। कुछ जनता की बातों पर हम नेता लोग शर्म से सिर झुकाते हैं और कई बातें ऐसी हैं जिस पर जनता और नेता सभी शर्मिन्दा रहते हैं।''
''जैसे?'' मैंने पूछा।
''जैसे पूज्य बापू के बताए मार्ग पर देश का न चल पाना। इसे लेकर जनता हमें कहती है कि शर्म आनी चाहिए। हम जनता को कहते हैं कि तुम्हें शर्म आनी चाहिए। गरज यह है कि दोनों शर्मिंदा हैं। इस प्रकार सारा देश ही शर्मिन्दा है। आखिर देश है क्या-जनता और नेता से मिलकर ही तो देश बना है!''
''क्या बात है। आप बहुत बड़ी बात कह गए। वाह! देश है क्या, नेता और जनता से मिलकर ही तो देश बना है। वाह!''
''और जनता भी क्या।'' वे बोले, ''असल में तो नेता ही देश है। जब नेता शर्मिन्दा होता है तो अपने आप सारे देश का माथा शर्म से झुक जाता है।''
''मगर एक निवेदन है।''
''कहिए।''
''प्रतिदिन के बजाय आप सप्ताह में एक दिन शर्म का निश्चित कर दीजिए। उस दिन आप पूरे  समय राष्ट्रीय, प्रान्तीय, स्थानीय और
पार्टी के आपसी मामलों को लेकर जितना शर्मिन्दा होना हो, हो लिया कीजिए। क्या ख्याल है! यह रोज-रोज का सिर-दर्द!''
''पहले मैं यही करता था। सिर्फ रविवार को शर्मिन्दा होता था। उस दिन मिलने-जुलनेवाले काफी आते हैं। मैं बातें भी करता रहता था और बात-बात पर अफसोस भी जाहिर करता रहता था। लोग प्रभावित होते थे। वे कहते थे कि आप सचमुच अखिल भारतीय स्तर के लीडर हैं, क्योंकि आप सारे देश के सभी मामलों और घटनाओं पर अफसोस करते हैं, सारा दिन शर्म से झुके रहते हैं।''

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