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जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


शर्म तुमको मगर आती है

उनके चमचे ने मुझे धीरे-से बताया कि वे इस समय शर्मिन्दा हैं, अगर कोई जरूरी काम हो तो ही आप मिलें। बात यह है कि जब वे शर्मिन्दा रहते हैं तब डिस्टर्ब होना पसन्द नहीं करते।
''किस बात पर शर्मिन्दा हैं?'' मैंने पूछा।
''पता नहीं आज किस बात पर हैं। कल तो छात्रों की अनुशासनहीनता पर थे।''
''मैं मिलना चाहूँगा। मैं लेखक हूँ और मुझसे ऐसे वक्त चर्चा करना शायद वे पसन्द करें।''
''जरूर मिलिए। जब वे शर्मिन्दा होते हैं, अक्सर कवियों को याद करते हैं। तीन-चार दिन हुए एक  कवि आया था। जब तक रहा, लज्जा से गड़ा रहा।''
मैं मंत्री महोदय के कक्ष में घुस गया। वे सामने खादी के सोफे पर खादी के कपड़े पहने पैर समेटे बैठे थे। उनकी गर्दन और हाथ लटके हुए थे। मुझे वे समूचे ही लटके हुए लगे। मैंने उन्हें नमस्कार किया। कोई उत्तर नहीं मिला। उन्होंने मुझसे बैठने को नहीं कहा, मगर मैं बैठ गया।

एक लम्बी सरकारी किस्म की चुप्पी के बाद उन्होंने नजरें उठाईं और मुझे घूरने लगे। वे मेरी तरफ ऐसे देख रहे थे, जैसे मैं उनके समीप पड़ा एक शव हूँ। काफी देर तक मृत बैठा उनकी घूरती नजरों को झेलना जब असम्भव हो गया, तो मैंने करुण रस में सनी कमरे की चुप्पी तोड़ी और बोला, ''सुना, आप शर्मिन्दा हैं?''
''हूँ।'' वे बोले।
''शर्मिन्दा हों आपके दुश्मन, आप क्यों शर्मिन्दा हों।'' मैंने कहा।
''नहीं, मैं शर्मिन्दा हूँ।''
''आप किस बात पर शर्मिन्दा हैं?'' मैंने पूछा।
वे चौंके। वे कुछ देर याद करते रहे कि वे किस बात पर शर्मिन्दा हैं, मगर याद नहीं कर पाए। वे शायद पिछले एक-दो घंटों में लगातार शर्म से इतने गहरे डूब गए थे कि अपने शर्मिन्दा होने की वजह ही भूल गए थे। मगर मंत्री हैं, इस तरह भूल जाएँ तो देश का काम कैसे चले। उन्होंने डायरी निकाली और उसके पन्ने पलटने लगे।
''आज कौन-सी तारीख है?'' उन्होंने पूछा।
''नौ।''
''अक्तूबर चल रहा है ना। हाँ, अक्तूबर ही तो! अभी तो गांधीजी का सब कुछ हुआ।'' और डायरी  देखकर बोले, ''आज मैं औरंगाबाद पर शर्मिन्दा हूँ।'' फिर हैरानी से कहा, ''आजकल याददाश्त बहुत कमजोर हो रही है।''
''काम भी तो बहुत रहता है।''
''हाँ, बहुत काम रहता है, मगर फिर भी वक्त निकालकर घंटा-दो घंटा शर्मिन्दा रह ही लेता हूँ।''

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