लेख-निबंध >> जीप पर सवार इल्लियाँ जीप पर सवार इल्लियाँशरद जोशी
|
241 पाठक हैं |
शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...
'तो साथियो, यह तय रहा। अब अमल शुरू। घुसो कॉफी हाउस में।' एक साथी ने कहा और
सब अन्दर घुस गए। अन्दर कुर्सियों के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा, क्योंकि जगह
बहुत थी। वे लोग एक टेबुल को घेरकर बैठ गए। मनीजर को खबर भिजवाई गई कि फलाँ
टेबुल पर डोसा होना चाहिए। इन सग़थेयों ने सारी दोपहर एक कमरे में बैठ जिले के
मामलों पर चर्चाएँ और बहसें करते गुजारी थीं। इनमें से कुछ बुजुर्ग नेता थे,
जिन्हें कई आन्दोलनों का अनुभव था। वे जब जहाँ चाहें कांग्रेसी हुक्मरानों को
नाकों चने चबवा सकते थे। चबवाए भी थे।
डोसे की प्लेटें आ गईं। एक साथी खड़ा हुआ और चिल्लाया-'इस मुल्क में अब
काँटा-छुरी की सभ्यता नहीं चलेगी।'
'नहीं चलेगी, नहीं चलेगी।'
'इस मुल्क में जहाँ बेकारी और बेरोजगारी हो, भूमिहीनों को जोत के लिए जमीन
नहीं मिल रही हो, आदिवासी तीन आना रोज पर गुजर-बसर कर रहे हों, काँटा-छुरी से
खाना जुल्म और नाइंसाफी है, गैर-बराबरी को कायम रखना है। अगर कॉफी हाउस की
मनीजमेण्ट काँटा-छुरी नहीं खरीदे तो डोसा के भाव कम हो सकते हैं। इससे कीमतों
को बाँधने में मदद मिलेगी। मगर अफसोस है कि हुकूमत का ध्यान इस मुद्दे की ओर
कभी नहीं गया। हमें यह काम अपने हाथों में ले शहरी अवाम को तैयार करना होगा।
हम अभी इसी वक्त छुरी-काँटे फेंक इस आन्दोलन की शानदार शुरूआत करते हैं।
दोस्तो, काँटा-छुरी फेंक दो।'
फर्श पर विभिन्न दिशाओं में काँटे-छुरी जा गिर। साथी शान्ति से डोसा खाने
लगे। कुछ जोरदार मजाकें हुई, कुछ जिन्दादिल ठहाके लगे और एक साथी तवरीडेला
आन्दोलन के समय कलक्टर से बातचीत के मजेदार संस्मरण सुनाने लगे। तभी कॉफी आई।
पी गई। इसी बीच दो कांग्रेसी जो आजकल सत्ताधारी दल में थे, कॉफी हाउस में
घुसे और पास की टेबुल पर बैठ गए। दोनों ने वेजीटेबल कटलेट्स के आर्डर दिए और
धीरे-धीरे किसी विभाग के टेष्टर पर बातें करने लगे। इधर अपनी कॉफियाँ खत्म
करने के बाद साथियों में उत्साह बढ़ गया था। वे ऐक्शन के लिए नए सिरे से तैयार
हो गए थे। एक कह रहा था-'जब तक जनता के दिल से यह 'आतंक समाप्त नहीं होगा कि
हिन्दुस्तान की राजनीति कांग्रेस के ही हाथों में होगी, तब तक नए सिरे से
राजनीतिक चिन्तन आरम्भ नहीं होगा। हमें हर स्तर पर कांग्रेस को उखाड़ना है।'
सहसा उसकी नजर उन दोनों कांग्रेसियों पर गई जो छुरी-काँटे से वेजीटेबल
कटलेट्स खा रहे थे। वह उठा और बोला-'कर्म आवश्यक है, नारों को जिन्दगो में
बदलना होगा। इसमें देर नहीं की जाएगी।' और उसने जाकर कटलेट खा रहे एक
कांग्रेसी की नाक पकड़ ली। कांग्रेसी ने उसकी ओर जलती हुई आँखों से घूरा। उसे
उम्मीद थी कि साथवाला कांग्रेसी उसकी नाक की रक्षा में मदद देगा, मगर वह खाने
में लगा था।
'यह आप क्या कर्रएँ हैं?' कांग्रेसी बोला, जिसकी नाक पकड़ी गई थी।
'नाक पकड़ रहे हैं आपकी।'
'क्यों?'
'वक्त आ गया जब कांग्रेस की नाक पकड़ी जाए। इक्कीस साल से जुल्म सह रहे हैं।
हद हो गई।'
'देखा आपने! ये तरीके हैं इनके! बड़े शरीफ बनते हैं, खुद को सिद्धान्तवादी
कहते हैं! लोहिया के चेले।'
'खैर मनाइए जनाब कि शराफत और संस्कृति के मामले में आपके हमारे दृष्टिकोण में
बुनियादी अन्तर है। आपका तरीका छुरी-काँटों का तरीका है, हम वस्तु को हाथ से
पकड़ते हैं। यही गांधी का तरीका है। जरा कल्पना कीजिए कि हम आपकी नाक
छुरी-काँटे से पकड़ते तो आप पर क्या गुजरती।'
'आप कब तक नाक पकड़े रहिएगा?'
'जब तक यह जड़ से न हिल जाए।'
|