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जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


'देखो दोस्तो, ऐसे नक्सलवादी तरीके से कॉफी हाउस में घुसना ठीक नहीं। हमें कुछ सूत्रों का एक कार्यक्रम बना लेना चाहिए और मियाद मुकर्रर कर देनी चाहिए।'
'हम लोग कॉफी पिएँगे, यह मिनिमम प्रोग्राम है। और डोसा खाएँगे।'
'इस प्रस्ताव पर कोई भाई अपने खयाल...'
'मंजूर है।'-कुछ आवाजें आईं।
'मुझे डोसा खाना द्विज हरकत लगती है।'
'डोसा खाना द्विज हरकत नहीं है। मैंने दक्खन में पिछड़े लोगों
को डोसा खाते देखा है। मेरा उनसे थोड़ा सांस्कृतिक सामीप्य हुआ था। मगर एक फर्क है जो मैंने कहीं-कहीं गौर किया, उसी से कहता हूँ, सब साथी विचार करें कि खाते वक्त छुरी-काँटे का इस्तेमाल अफसरशाही क्रिया है। हमें नहीं करना चाहिए।'
'इसे अमली शक्ल देने में मुसीबत आ सकती है। डोसा हमेशा छुरी-काँटे से खाने की आदत रही है।'
'अगर मुसीबतों से मुकाबला नहीं कर सकते तो पाटी छोड़ दें।'

सब चुप हो गए, मगर चिन्तन की प्रक्रिया जारी रही। सवाल आम बहस के लिए खुला छोड़ दिया गया। नब्बे सैकड़ा मेम्बरों में डोसा खाना तय पाया गया और इस दिशा में जल्दबाजी भी दिखाई गई, क्योंकि भूख लग रही थी। वे छुरी-काँटे का त्याग करने को तत्पर थे। मामले को ठीक नजरिए से समझने के लिए वे इतिहास में गए। देखा कि यह रिवाज बरतानिया से आया है और मुल्क की आजादी के बाद जवाहरलाल ने इसे खत्म करने की दिशा में कोई पहल नहीं की, बल्कि उल्टे बढ़ावा दिया। अब इस सरकार से उम्मीद करना बेकार है। जब तक समाजवादी ताकतें एक होकर छुरी-काँटों के खिलाफ कड़ा कदम नहीं उठाएँगी, यह आदत मुल्क के अफसर-वर्ग में कसरत से कायम रहेगी। इस मामले में सूबाई साथियों को चाहिए कि वे अपने इलाकों के लिए एक कार्यक्रम आरम्भ कर दें, जिसका लक्ष्य बड़े होटलों, डाक-बगलों और सरकारी ऐशगाहों से छुरी-काँटों का उन्मूलन हो। अगर जरूरी समझा जाए तो घेराव किया जाए और आन्दोलन की पूरी रपट केन्द्रीय दफ्तर को भेजी जाए। इस काम में उन्हें भूमिहीनों, हरिजनों तथा अन्य पिछड़ी जातियों का नैतिक समर्थन मिलेगा क्योंकि वहाँ ऐसे रिवाज नहीं पाये जाते। दिल्ली में काम शुरू किया जाना चाहिए। सरकारी शाहखर्च पार्टियों में, जो राष्ट्रपति या वजीरों द्वारा बुलाई जाती हैं, सोशलिस्ट साथी छुरी-काँटा उठाकर फेंक देगे। आन्दोलन को सिविल नाफरमानी की शक्ल दी जाएगी। आज ही हम इस सवाल पर बम्बई, दिल्ली और बनारस के साथियों को चिट्ठियाँ डालेंगे। आन्दोलन की शुरुआत इसी कॉफी हाउस में आज से की जाएगी। इसे आगे बढ़ाने के लिए हम दीगर पार्टियों से भी बातें करेंगे। कम्युनिस्टों से उम्मीद करना बेकार है, क्योंकि वे साम्यवादी देशों के पिछलग्गू हैं। जनसंघ शायद तैयार हो जाएगा, क्योंकि वह भारतीय संस्कृति पर एक खास नजरिए से, हालाँकि मतभेद हो सकते हैं, जोर देता है।

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