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जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


राजनीतिक हलचल : नगर संस्करण

'राजनीतिक क्षेत्रों में हलचल' एक अखबारी मुहावरा है। हमारे नगर के सन्दर्भ में इसे समझना कठिन है। जो इस नगर में रहते हैं वे जानते हैं कि यहाँ राजनीतिक हलचल का मतलब क्या होता है? मतलब है कुछ न करनेवाले नेताओं द्वारा कुछ नहीं किया जाना। यह सच है कि ऐसे दिनों खूब अखबार पढ़े जाते हैं और जानकारियों का आदान-प्रदान होता है। वे लोग ऐसे 'क्राइसिस' के मौकों पर गम्भीर हो जाते हैं और यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि वे गम्भीर हैं। और कई बार जोर-जोर से हँसकर यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि वे पुराने छँटे हुए घाघ हैं। घाघ न हों, वे पुराने जरूर हैं। कुछ तो शक्ल से कांग्रेस से भी पुराने कांग्रेसी लगते हैं। ये लोग मिलकर जो हलचल करते हैं उसे कहते हैं, नगर की राजनीतिक हलचल। यह सदैव एक जैसी होती है। हम तो बरसों से देखते आ रहे हैं।

आप बदरी भैया पंसारे को लीजिए। ऐसे हर मौके पर वे पहला काम यह करते हैं कि टीन की बड़ी पेटी से अपनी बादामी शेरवानी निकालकर पहन लेते हैं। जब चीनी आक्रमण हुआ, तब उन्होंने यही किया था, जब पाक-आक्रमण हुआ तब यही किया और अभी जब दिल्ली में कांग्रेस दो खेमों में बँटने लगी तो उन्होंने यही किया। तुरन्त शेरवानी निकालकर पहन ली और अपनी बैठक में आकर बैठ गए। पंसारेजी का घर नगर के बीच में है और उनकी बैठक काफी बड़ी है। सिर्फ इसी कारण वे धीरे-धीरे शहर के प्रमुख नेता बन गए। कांग्रेस कमेटी का दफ्तर नगर के छोर पर है। वहाँ तक जाने के कष्ट से बचने के लिए कांग्रेसी नेता हमेशा प्रस्ताव कर देते हैं कि क्यों नहीं बैठक पंसारेजी के निवास-स्थान पर कर ली जावे। इस आलस का नतीजा यह हुआ कि पंसारेजी बड़े नेता हो गए। कुछ हद तक इसमें उनकी बादामी शेरवानी का भी योग रहा। आपके विषय में कांग्रेसी मित्र कहा करते हैं कि पंसारेजी एकनिष्ठ, तपस्वी एवं सच्चे जनसेवक हैं। यह विशेषण बार-बार दुहराए जाते हैं। इसमें एक चाल है। यह हवा इसलिए बाँधे रहते हैं कि कहीं पंसारे चुनाव का टिकट न माँग बैठें। वे लोग कहते हैं कि पंसारेजी जरा भी पदलोलुप नहीं हैं। त्यागी और कर्मठ वगैरह हैं। नतीजा यह कि बेचारे पंसारेजी शहर कांग्रेस से कोषाध्यक्ष पद से कभी आगे नहीं बढ़ पाए और एक बादामी शेरवानी के बाद दूसरी नहीं सिलवा सके। पंसारेजी जब कोषाध्यक्ष थे, तब की हिसाब में कुछ गड़बड़ियाँ हैं। यह बात सबको पता है, मगर चुप रहते हैं। जिस दिन पंसारे टिकट की बात करेगा, ये लोग सारा कच्चा चिट्ठा खोल देंगे। पसारे भी अपनी खैर इसी में समझते हैं कि तपस्वी बने रहें।

पंसारेजी ऐसे मुसीबत के मौकों पर एकता और सहयोग पर जोर देते हैं। जनता की नहीं, सिर्फ कांग्रेस की एकता। अपनी मिनमिन आवाज में कहते हैं-'ऐसा करें, सब लोग बैठ लें एक स्थान पर और चर्चा कर लें, जिसके जो विचार हों पता लग जाएँ तो सब मिल-जुलकर तय कर लें। क्या करना, क्या नहीं करना। फिर जैसा आप लोग उचित समझें। मेरे खयाल से तो सब लोग कहीं बैठ लें। क्योंकि ऐसा है कि सबके क्या विचार हैं पता लग जाएगा और आगे क्या नीति रखना सो भी सेटल कर लेवें। सब लोग कहीं बैठ लें।'

ओर सब लोग कहीं बैठ लेते हैं। अखबारों में छपता है कि यह महत्त्वपूर्ण बैठक पंसारेजी के निवास-स्थान पर हुई। उनका नाम फैलता है।

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